मनोज कुमार राठौर, भोपाल
स्वतंत्रता के वर्षों में भारत ने क्या खोया, क्या पाया इसको आज भारत के दर्पण में साफ देखा जा सकता है। सन् 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के शंख नाद की गूंज अभी तक सुनाई देती है, जो भारतवासियांे को इस ओर इसारा करती है कि आज भी देष पूरी तरह से स्वतंत्र नही हो पाया है। भारत भ्रष्ट गुलामी की जिंदगी बसर कर रहा है। आजादी में लड़ने वाले दिवानों ने क्या इस भारत की कल्पना की थी जिस ओर भारत अग्रसर है। देष के कानून बनाने वाले ही इस कानून की मर्यादा को भंग कर रहे हैं। मां के उन लालो ने अपने खून से आजाद तिरंगे को सिंचा है, तब जाकर हम इस आजाद भारत की कल्पना कर पाए हैं। पर इस भारत में उन राक्षकों का भी ढेरा है जो जिस थाली में खाते है उसी में छेद करते हैंै। आजादी के बाद हुए जीप घोटाला, बैंक घोटाला, चीनी घोटाला, जमीन घोटाला, खाद्यान्न घोटाला, डेयरी घोटाला, चारा घोटाला, शेयर घोटालाअ और दवा घोटाला जैसे न जाने कितने घोटाले हो चुके हैं जो गरीब के खून पसीने की कमाई में से किये गए हैं। जब भी इस तरह के घोटाले होते है तो कोई डकार तक नहीं लेता। क्या आजाद होने का यह मतलब है, तो फिर देष अंग्रेजों के हाथ में ही ठीक था। भारत के संविधान निर्माता के द्वारा बनाए गए नियमांे का पालन उनके अंगरक्षक द्वारा किया जाना था, पर ऐसे संभव नही पाया और वही अंगरक्षक उन नियमों की धज्जियां उड़ाते दिखते हैं। मध्यप्रदेष की विधानसभा में अध्यक्ष की आसंदी पर जो काले दुपट्टे फेकें गए थे उससे ऐसा लगता है कि नेताओं को यह मालूम नही था कि वह उस पवित्र मंदिर में खडे़ है जिसकी पूजा पूूरा देष करता है। इस घटना के बाद हुए नोट कांड ने तो आजादी के सपनें को चक्माचूर कर दिया। संसद में हुए नोट कांड ने तो संसद की मर्यादा को ताख पर रख दिया। जिस तरह से नोटों की गड्डी संसद में उछाली जा रही थी इससे ऐसा लग रहा था कि वहां पर कोई नाच गाना हो रहा है। नोटों की इस नुमाईष ने आजाद भारत को शर्मषार के साथ उस आजाद भारत कल्पना पर सवालियां निषान लगा दिया है। एक समय ऐसा था कि देष के लिए लोग मर मिटने को तैयार रहते थे चाहे वह सुखदेव हो या फिर भक्तसिंह। देषभर में इन देषभक्तों चर्चे थे, जिन्होंने मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना बलिदान दिया। स्वतंत्रता के समय देषभक्तों को राष्ट्रीय विद्रोह का दर्जा दिया गया लेकिन कं्रातिकारियों ने यह विद्रोह जारी रखा। काल मार्कस् ने अगे्रंजों द्वारा किए गए अत्याचारों और क्रांतिकारियों के अभियानों पर न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून में 28 जुलाई 1857 कें अंक में लिखा था कि भारतीयों उथल-पुथल कोई सैनिका कार्यवाही नहीं है, बल्कि एक राष्ट्रीय विद्रोह है। उन्होंने दावा किया कि धीरे-धीरे ऐसे तथ्य सामने आते जायेंगें जिनसे स्वयं जाॅन बुल को विष्वास हो जाएगा कि जिसे वह सिपाही विद्रोह समझते हैं वह वास्तव में एक राष्ट्रीय विद्रोह है। मार्कस् ने विद्रोह में विभिन्न समुदायों की एकता का उल्लेख करते हुये 30 जून 1857 को लिखा कि मुसलमान और हिन्दू अपने समान मालिकों के खिलाफ एक हो गये। भारत देष को स्वतंत्र कराने में क्रांतिकारियों ने जिन मुसिबतों का सामना किया है जो आज भारत देष के लिए मिषाल बन गया है। अग्रेंजों की जंजीरों से भारत को आजाद कराने के बाद आजादी की इस मषाल को हमारी सीमा पर तैनात जवानों ने थामा। देष की सुरक्षा की जिम्मेदारी इन्होंने अपने कधें पर ले ली। इस जिम्मेदारी को पूरा करने में कई सैनिकों ने अपना बलिदान भी दे दिया। इन बलिदानों को लोग भूल रहे है, बस उनकी याद 15 अगस्त को कर ली जाती है और बाकी दिन उनके स्वतंत्र भारत को ,फिर से गुलामी की जंजीरों में जकड़ दिया जाता है। हमारे देष में ही यह स्थिति है कि एस।ई।जेड. का विरोध करने वाले ग्रामीणों पर फायरिंग की गई। सत्य बात तो यह है कि उस घटना के पीछे कोई भी व्यक्ति दोषी नहीं पाया गया। जिस तरह इन श्रमिकों पर लाठियां और फायरिंग की गई इस घटना से जलियांवाला बाग की यादें ताजा कर दी। हमारे देष का दुर्भाग्य यह है कि जहां कानून के रक्षक ही भक्षक बन जाएगें, तो इस देष की रक्षा कौन करेगा? आज धर्म के नाम पर होते जातिगत दंगे, जो कई बेकसूर लोगों की तबाही के कारण बनते हैं। बाबरी मस्जिद कांड हो या फिर राम मंदिर विवाद, जिस पर कई समुदाय आमने सामने थे। इस आजाद भारत में जहां सबका मालिक है तो फिर ऐसा क्यो किया जाता है। यह सब तो उन नेताओं की करतूत होती है जो वोट पाने के लिए यह शर्मषार खेल खेलते हैं। जिस देष में ऐसे नेताओं का वास होगा वह तो आजाद कभी नहीं हो सकता। गंगादास आश्रम के 367 साधुओं ने वीरंागना लक्ष्मीबाई को बचाने के लिए फिरंगी सेना से लड़ते-लड़ते जीवन बलिदान दे दिया था और सैकड़ों घायल हुये व अंग्रेजी सेना के दमन का षिकर होने बावजूद भी इन वीर साधुओं ने महारानी लक्ष्मीबाई का शव भी अग्रंेजों के हाथ नहीं आने दिया और बड़ी षाला की घास की गंजी में आग लगा कर लक्ष्मीबाई को अग्नि संस्कार कर दिया। इन साधुओं का बलिदान इतिहास बन गया है जिन्होंने अपनी मिट्टी के साथ बेईमानी नही की। जो न धर्म को को लेकर लड़े। बस उनका एक लक्ष्य था भारत देष को आजाद कराना। जिसके प्रति झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की रक्षा के लिए अपना बलिदान तक दे दिया। फिर भारत जैसी पवित्र भूमि पर जातिगत विवाद क्यो गहराता जा रहा है। 15 अगस्त के दिन इन शहिदों को सम्मानपूर्वक श्रद्धाजंली दी जाती है और इसी दौरान नेताओं द्वारा भाषण भी दिये जाते है जो देष भक्ति से ओतप्रोत होते हैं। पर नेता अपना कर्तव्य भूल जाते है कि देष की स्वतं़़़त्रता को भी संभाल के रखना है। देष की हर दिषा गुलामी की जंजीरों से बंदी है जिसमें जंजीरे भी हमारी है और देष भी हमारा। आतंकवाद, खूस खोरी, बेईमानी, भ्रष्टाचार और अपराध जो देष के लिए समस्या है। वही देष को गुलाम कर रहे हैं।
अब छोड़ो यह भ्रष्टाचारी।
देष की रक्षा तुम्हारी जिम्मेदारी।।
तकनीकी खराबी के कारण शब्दों में कुछ त्रुटियां हैं जिनके लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं।
No comments:
Post a Comment