Tuesday, September 30, 2008

कुपोषण बनी देशव्यापी समस्या


मनोज कुमार राठौर
आजादी के 60 साल के बाद भी हमारे नौनिहाल भूख और कुपोषण से दम तोड़ रहे हैं। कुपोषण का कहर तेजी से फैल रहा है आए दिन कुपोषण के कारण कई मासूम बच्चों की जान जा रही है। प्रदेष के सतना, ग्वालियर, छिदंवाड़ा और विदिषा में कुपोषण के कई मामले सामने आए। इन क्षेत्रों के अलावा भी भोपाल में 700 से अधिक बच्चे कुपोषण का षिकार हैं और उनमें से तीन दर्जन बच्चे गंभीर है। यह समस्या राज्य तक सीमित नहीं है, अब तो यह पूरे देश में अपना घर बना रही है। इसके लिए हमारी सरकार और लोगों को कमर कसना पड़ेगी।
नौनिहाल की मृत्यु दर दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। सरकार प्रयास तो कर रही है परन्तु इस पर रोक लगाने में असमर्थ दिखाई देती है। कुपोषित बच्चों के लिए सरकार कई जगहों पर कुपोषण केंद्र तो खुलवाए हैं, लेकिन वहां की व्यवस्था इतनी अच्छी नहीं है कि बच्चों को अच्छा ईलाज मुहैया कराया जा सके। जिलों के कई पिछड़े क्षेत्रों में ईलाज के लिए बच्चों को कुपोषण केंद्रों में नहीं लाया जाता है। पिछड़े क्षेत्रों के लोगों को डाॅक्टरी की परिभाषा तक नहीं पता। वह तो झाड़ा फंूकी पर विश्वास रखते हैं। लोगों की अंाखों पर से अंधविष्वास की काली पट्टी को हटाना पडे़गा। इसके लिए सरकार को आगंनबाड़ी के कार्यक्रताओं और स्वास्थ्यकर्मीयों द्वारा लोगों को जागरूक करना चाहिए। इस संदर्भ में कई योजना भी बनानी चाहिए, ताकि कुपोषित बच्चों का समय पर ईलाज हो सके।
जिस तरह पोलियों को समाप्त करने के लिए सरकार दृढ़ संकल्पित हुई थी। उसी प्रकार इस पर भी ध्यान देना चाहिए। कभी तो कुपोषण ग्रस्त ईलाकों की संख्या कम हैं। यदि इस पर समय रहते ध्यान नहीं दिया गया तो यह भी पोलियों की तरह पूरे देश की समस्या बन जाएगी। हमारे देष में कुपोषित बच्चों की संख्या 1998-1999 में 53.5 की तुुलना में 2005-2006 में 60.3 फीसदी हो गई है। बच्चों पर यह बीमारी अपना घर बना रही है। मध्यप्रदेश के अलावा भी देश के कई राज्यों में कुपोषित बच्चों की संख्या बढ़ती जा रही है। हालांकि हमारा स्वास्थ्य विभाग इस विषय पर लोगों को जानकारी देता है। पर सरकार के अलावा भी लोगों का कर्तव्य बनता है कि इस पर ध्यान दे। जिस तरह यह कुपोषण बच्चों में फैल रहा है उसको देखते हुए स्वास्थ्य विभाग को ओर अधिक सतर्क हो जाना चाहिए। जिले के सरकारी आकंड़ों की माने तो अब भी 289 गंभीर कुपोषित बच्चें जीवन-मृत्यु से जूझ रहे हैं। तथापि इस साल की शुरूवात में कुपोषण एक फीसदी कम हुआ है। पर क्या यह एक फीसदी हमारी सफलता है? सतना जिले के कई ब्लाकों में कुपोषित बच्चों के मामले सामने आए हैं। सतना के अलावा भी कई जिले मे कुपोषण की काली छाया का प्रकोप है। आज के इस वैज्ञानिक युग में कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी का ईलाज है, तो फिर यह तो एक छोटी सी बीमारी है। कुपोषण पर राज्य सरकार के अलावा केंद्र सरकार को भी गंभीर होना चाहिए।

Monday, September 29, 2008

मत डर हिन्दुस्तान, क्या करेगा पाकिस्तान

भारत जैसे शक्तिशाली देश में आतंकवाद क्यों बढ़ रहा है। इसके पीछे आखिर कौन सी वजह है? हमें अब तक इस समस्या से छुटकारा क्यों नहीं मिल पा रहा है? अब तो यह स्थिति देखकर ऐसा लगता है कि इस संदर्भ में हमारी सरकार मौन है। इस गंभीर विषय पर सरकार द्वारा आश्वासन और बयानबाजी की जाती है, परन्तु कोई कड़ा कदम नहीं उठाया जाता। हिन्दुस्तान को पता है कि पाकिस्तान के आतंकवादी इन घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं फिर भी हमारी सरकार चुप्पी साधे हुए है। इसी सभी उलझनों को लेकर यह कविता लिखी गई है।
मनोज कुमार राठौर

मत डर हिन्दुस्तान
क्या करेगा पाकिस्तान

हमें पता आतंकवादी कौन
जब भी क्यों हम रहते मौन

मासूमो की जान है जाती
सरकार तो बस नोट दिखाती

लगता नेताओं की है सांठ-गांठ
इसलिए सुनती है उनकी बात

पोटा कानून लागू नहीं करती
क्यों नये कानून की माला जपती

चुनौती देकर करते हमले
फिर भी हम नहीं होते चोकन्ना

आख़िर क्यों नहीं लेतें बदला
कब तक सहगें हम यह हमला

जब किया है परमाणु करार
तो इस पर भी करो विचार

अब तो करना होगा युद्ध
तभी होगें हम सब मुक्त

कब तक करे हम समझोता
बह देते हर समय धोखा

सभी एक ही थाली में हैं खाते
इसलिए घर के भेदी लंका ढाते

अब समझोते की नहीं
समझाने की बारी है

चंद मिनटों में करो यह काम
भारत मां का लेकर नाम
जय हिन्द

Wednesday, September 24, 2008

आतंकवाद भाई


सुबह-सुबह घूमना स्वास्थ्य के लिए कितना लाभदायक होता है। यह किसी से छिपा नहीं है। मेरे लिए तो और भी लाभदायक सिद्ध हुआ जब मेरी मुलाकात उस महानगुणों के
धनी से हुई । जो भी वार्तालाप हुई वह मैं अपने इस लेख के माध्यम से आप सभी के समक्ष प्रस्तुत करना चाहता हूं।

उस दिन हल्की-हल्की बूंदों की फुहार भरे मौसम को खुशनुमा बना रही थी। मैं प्रातः भ्रमण के लिए गया और अचानक मेरी नजर सड़क के किनारे पड़े एक व्यक्ति पर पड़ी वह एकदम सुस्त व बीमार सा लग रहा था। मेरे अन्दर का इंसान जाग उठा, मुझे उस पर दया आ गई। मैं उसके समीप जाकर उसे पुकारा और उसका नाम पता जानना चाहा, परन्तु वह इतना कमजोर था कि उसके मुंह से सही ढंग से कराह भी नहीं निकल रही थी। बड़ी मुश्किल से मैंने उसे सहारा देकर उठाया और उसे पानी पिलाया।
अब कैसा लग रहा है भाई साहब उससे पूछा । बमुश्किल उसके मुंह से निकला ठीक हूं पहले से काफी बेहतर महसूस कर रहा हूं। मैंने उससे नाम तथा पता पूछा। पहले तो वह मेरे सवाल का जबाब नहीं दे रहा था फिर मेरे जोर देने पर कहने लगा कि रहने दो भई मेरा नाम पता जानने के बाद तुम मुझे गाली दोगे और घृणित नजरों से देखोगें, मैने उस आश्वासन दिया कि ऐसा कुछ नहीं होगा मुझ पर विशवास करो। मेरे आश्वासन देने के बाद उसने कहा कि ठीक है अगर आप इतना जोर दे रहे हैं तो सुनिए मेरा नाम आतंकवाद आफगानी है। मैं शान्तचित होकर उसकी बातें सुन रहा था कि भई कहंा खो गए, मै आतंकवाद आफगानी हूं तुमने सही सुना । हां मेरा नाम आतंकवाद है समझे। मुस्कुराकर कहा आप अपनी बात जारी रखिए। वह मेरी तरफ मुंह फाडे़ देखने लगा और फिर मुझसे कहा आप मेरा नाम सुनने के बावजुद इतने शांत खड़े हैं। पर मुझे और ज्यादा जानने के बाद आप मुझे अगर मारेंगे नही ंतो गाली अवश्य देंगे। मैंने उसके परिवार और निवास स्थान के बारे में पूछा उसने कहा मेरे माता पिता क्रिमस्छा नफरत और जेहाद हैं और मेरे भाईयों के नाम हैं-अलकायदा, जैश-ए-मोहम्मद। मेरे ननिहाल अफगानिस्तान के पास तालिबान में है तथा मेरे पिता पाक के हैं। इसलिए मेरा बचपन ननिहाल और दादा-दादी के यहां गुजरा। मेरा लालन-पालन दोनों जगह सामन रूप से हुआ।

उसने अपना निवास स्थान बताते हुए कहा कि जावानी में कदम रखते ही अपने घर के बाहर निकला ताकि कुछ रोजगार की तलाश करके अपनी रोजी रोटी चला सकूं इसीलिए मैं भारत अर्थात आपके देशआ गया। मैं सबसे पहले पंजाब गया और वहां पर 10-15 साल तक काम किया, उसके बाद मैं ठंडी वादियों की सैर करने के इरादे से जम्मू-कश्मीर की ओर आ गया और अभी भी वहीं पर हूं।
मैंने उससे कहा कि फिर आज आप यहां कैसे पहंुच गए। उसने बताया कि मुझे एक ही जगह पर रहते-रहते काफी दिन हो गए थे तो मैंने सोचा कि चलो थोड़ा आबोहवा बदली जाए लहरों में अठखेलियां करने के लिए आ गया, फिर सोचा कि इस देश के उद्योग धंधे देख आऊं इसीलिए मैं बंगलुरु और गुजरात गया और अब यहां झीलो की नगरी भोपाल आया । मुझे याद आया कि अभी कुछ समय पहले वाराणसी और जयपुर में भी आतंकवाद नाम के दर्शन हुए थे। उसने मुझसे कहा कि मैनें अपनी तरफ से बहुत कोशिश की तुम हिन्दुस्तानियों को अलग करने कि कभी सम्प्रदाय के नाम से कभी मंदिर- मस्जिद के नाम पर, लेकिन तुम लोंग कभी भी अलग नहीं हुए । तुम हिन्दुस्तानियों को कुछ समय के लिए आपस में लड़ाकर मै खुश हों जाता था पर पता नहीं ऐसा क्या है कि तुम लोंग कुछ समय बाद फिर एक साथ हो जाते हों।

मैंने आतंकवाद को सहारा देकर कहा कि उठकर खडे़ हो जाओ भाई। वह थोड़ी हिम्मत करके मेरा हाथ पकड़कर खड़ा हुआ। मैंने उसे समझाया देखो भाई अगर तुम्हें हम हिन्दुस्तानियों के दिलों में दहशत पैदा करनी है तो तुम्हें एक आसान तरीका बताता हूं। उसके चेहरे पर एक चमक आ गई उसने कहा भाई जल्दी बताओ क्या है वह तरीका, मैंने कहा इसके लिए तुम्हे एक-एक मां की गोद सूनी करनी होगी, पत्नी की माँग, भाई की कलाई सूनी करनी होगी। वह बोला यह तो बहुत मुश्किल काम है। मैं उसके हताशा को सुन रहा था। मैंने उससे कहा कि भई देखो तुमने इतनी मेहनत की और इस देश को तोड़नें की पुरजोर कोशिश की, कभी जातिवाद के नाम पर, कभी आरक्षण के नाम पर, लेकिन आपने कभी सोचा कि फिर ऐसी कौन सी बात है कि आप लोग कभी सफल नहीं हो पाए है।मैं उसे समझा रहा था कि अचानक मेरे पीछे की तरफ से एक फुटबाल आतंकवाद को लगी और वह एक कटे पेड़ की भांति जमीन पर गिर गया। मैंने कहा कि संभालकर भाई साहब और देखा कि एक सात-आठ साल का बच्चा दौड़ता हुआ आया व मुझसे कहने लगा कि भइया मुझे माफ कर दीजिए ये फुटबाल मेरी है और मैंने मारी थी। मैंने कहा कि बेटा तुम्हारी फुटबाल मुझे नहीं बल्कि इन साहब को लगी है, वह बच्चा आतंकवाद की ओर मुखातिब होते हुए कहा अंकल मुझे माफ कर दीजिए। मंैने कहा बेटा इनका नाम आतंकवाद है,उस बच्चे ने मुस्कराते हुए कहा कि सारी आतंकवाद अंकल और अपनी मासूम आवाज में कहने लगा मेरी गलती नहीं है, उधर देखिए वो तीनों मेरे दोस्त है असलम, सुखविन्दर और पीटर उन्होंने फुटबाल के कारण मुझसे लड़ाई करना शुरू कर दी और मैं गुस्से के कारण फुटबाल में लात मार दी। मैने उसके सिर पर हाथ रखते हुए बड़े प्यार से पूछा बेटा तुम्हारा नाम क्या है उसने कहा विजय फिर मैने कहा अच्छा बेटा जाओ उसने साॅरी कहा फिर चला गया।आतंकवाद ने मुझसे कहा भाई साहब यह बच्चा मेरा नाम जानने के बावजूद मुझसे बिना डरे साॅरी कहकर चला गया। मैंने उसे समझाते हुए कहा कि दरअसल में भाई साहब बात ऐसी है कि इन बच्चों को इनके माता-पिता ने ऐसे संस्कार दिए है कि वो लोग किसी से भी गुस्ताखी नहीं कर सकते चाहे वह उनका दुश्मन ही क्यों न हो। मैंने आतंकवाद से कहा कि भाई साहब मैं आपका एहसानमंद हूं। अरे नहीं मैं बस क्या सारा देष आपका आभारी रहेगा, आतंकवाद आफगानी मेरा मुंह ताकने लगा वह बोला क्यों मैंने ऐसा क्या कर दिया कि सारा देश मेरा आभारी रहेगा। मैंने उससे कहा कि आप हम भारतीयों का एकता का मंत्र देते हो उन्हें मोतियों की भांति एक माला में पिरोकर रखते हो, जब कभी हमारे देश में कहीं भी बम विस्फोट हो या दंगे फसाद होते है उसी समय हमें अपने भारतीय होने का एहसास होता है हमारे संस्कार रीति रिवाज और अपनत्व की भावना अपने कर्तव्यों का बोध होता है हिन्दू मुसलमान के बच्चों को अपना खून देता है तो मुसलमान अपने भूखे बच्चे के सामने से भोजन की थाली खिसकाकर एक हिन्दू बच्चे को दे देता है।ष्यहां पर हिन्दू रमजान के पावन पर्व में रोजा रखता है तो मुसलमान नवरात्र में, हिन्दू ताजिया में जुलूस निकालते हैं तो मुसलमान जगन्नाथ भगवान का रथ खीचते हैं जानते हो ये सब क्यों करते है क्योंकि वे एक भारतीय हो जाते हैं। वे हम हो जाते हैं हम का अर्थ हिन्दू मुसलमान है और तुम्हारे इन अत्याचारों का मुकाबला कोई एक संप्रदाय नहीं करता बल्कि हम (हिन्दू,मुसलमान,सिख,ईसाई) करते हैं मेरी ऐसी बातें सुनकर आतंकवाद की आंखों से आंसू बहने लगे उसे देखकर मेरा भी गला रूआंसा हो गया। वह धीरे धीरे कदम बढ़ाते हुए जाने लगा और मंै उसे रूआसे स्वर में भाई साहब कहकर पुकारता रहा। मैं मजबूर था मैं उसके लिए कुछ नहीं कर सकता था।

आतंकवाद के जाने के बाद मैंने अपने आंसू पोछे तथा सोचने लगा कि उस महान आत्मा के साथ कोई अनुचित व्यवहार तो नहीं किया बताओ बेचारा मेरे कारण हुए चला गया मै अपने कहे गये षब्दों में खोया था और सोच रहा था कि क्या वाकई में आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए हम खडे़ हैं मैं यही सोचते हुए पीछे मुड़ा ही था कि मैंने देखा वही फुटबाल खेलने वाले बच्चे मेरे पीछे खड़े थे और मुझसे कहने लगे कि भइया आतंकवाद आफगानी का मुकाबला करने के लिए आप अकेले नहीं हैं, आपके साथ हम खड़े हैं सच ही तो कहा उन बच्चों ने क्योंकि यही तो भविष्य हैं हमारे देश के। अगर ये बच्चे आतंकवाद के खिलाफ खड़े हैं तो क्या मेरे देश के युवा नहीं? मैं इसका जवाब अपने युवा भाइयों से जानना चाहूंगा। अपने देश से अगर आतंकवाद आफगानी को भगाना है तो हम सभी को एक साथ इसका मुकाबला करना होगा। केवल एक दो लोगों के लड़ने से ही यह समस्या हल नहीं होगी।
यह लेख मेरे घनिष्ट पत्रकार मित्र अश्वनी प्रभात शर्मा द्वारा लिख गया है।


Saturday, September 20, 2008

व्यंग्य

आओ सिखाएं

तुम्हें पोटे का पोटा..

मनोज कुमार राठौर
पोटा कानून को लेकर कर पार्टी आमने-सामने हैं। यह वह पोटा है जिस पर सभी राजनीति दल अपनी रोटियां सेंकना चाहते हैं। हां मैं बात कर रहा हूं आतंकवाद निरोधक कानून (पोटा) की जो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल से अभी तक अधर में है। आतंकवाद से निपटने के लिए बनाए गए इस कानून की तो मिट्टीपलित हो रही है। अब तो ऐसा लगता है कि पोटा न तो घर का है और न ही घाट का। उसका तो भगवान ही मालिक है। राजनीतिक पार्टियां तो यही चाहती है कि पोटा का ताज उनके सिर पर सजे। पर शायद इस पोटा-पोटा की रट में तो उसका आस्तिव ही समाप्त हो जाएगा। हाए रे यह पोटा, किस ने बनाया यह पोटा, यह सवाल सभी के मन में है। जब पोटा का प्रयोग ही नहीं किया जा रहा तो यह पोटा कानून हमारे लिए बेकार है। पोटा के रचियता यह भूल गए थे कि यह पोटा आखिर क्यों बनाया गया।
पोटा का चलन तो हमारे गृहमंत्री साहब के कपडे़ के समान बदल रहा। सरकार आतंकवाद के लिए नए कानून की बात कर रही है। अब ऐसा लगता है कि पोटा का काम समाप्त हो गया है। यह तो वहीं बात हुई खाया पिया कुछ नहीं और गिलास फोड़ा आठाना। जब पोटा कानून बनाया गया है तो उसे लागु करना चाहिए न कि उसे संविधान की विरासत में सजा कर रखना चाहिए। जहां एक ओर हम आतंकवाद को समाप्त करने की बात करते हैं तो दूसरी ओर उसे पनहा भी हम देते हैं। हमारी सरकार पोटा कानून लागू करने में असमर्थ है। पर उसकी बहादुरी भी तो देखो की वह आतंकवाद के लिए नया कानून बना रही है। हमारी प्रिय सरकार जब आतंकवाद निरोधक कानून पोटा लागू करने में सकक्षम नहीं है तो क्या खाक इस नये कानून को लागू करपाएगी।
किसी ने सही कहा है कि दो पत्नियों से तो अच्छा एक का होना सही है। क्योंकि हमें एक तरफ से प्रताड़नाएं मिलती है न कि दोनों तरफ से। भारत सरकार एक कानून का पालन तो सही तरह से नहीं कर पर रही है और अब नया कानून बनाने चली। सरकार को गिराने के लिए अन्य राजनैतिक पार्टी इसको अपना चुनावी मुद्दा जरूर बनाएगी। राजनीतिक की इस घमासान में नुकसान तो आम जनता का है। सरकार तो यह समझती है कि जब भी आतंकवादी देश में पटाखे फोड़े है तो उसका मुहावजा लोगों को मिले, पर मुहावाजा किसी की जान की कीमत नहीं है। जब किसी मां के बूढ़ापे का सहारा उससे छिन जाता है तो उसका दर्द वह जिंदगी भर झेलती है क्या किसी को इसका अंदाजा है?

मालवी भाषा में पोटा का अर्थ होता है गोबर। भारत में गोबर के कण्डे का बहुत चलन है। जिसके पीछे कभी-कभी लड़ाई भी हो जाती है। मोहल्ले की गली में यदि गोबर पड़ा है तो मोहल्ले के कई लोग आपस में झगड़ने लगते हैं, जिसमें एक बोलता है कि यह मेरा गोबर है, तो दूसरा कहता है कि इस पर मेरा अधिकार है। सभी को मालूम है कि गोबर से कण्डे बनाए जाते हैं। पर यह बात मुझे हजम नहीं होती कि इस गोबर के लिए आखिर लोग क्यों लड़ते हैं। जी हां मेरा इसारा उन राजनीति पार्टियों की तरफ है जो इस गोबर को लेकर लड़ रहे हैं। इस गोबर के पीछे आखिर लड़ाई क्यों की जाती है। यह गोबर (पोटा) किसी के भी पास जाए। लक्ष्य यही होना चाहिए की इसका कण्डे अवश्य बने। नेताओं ने तो इतनी टुच्चाई दिखाई है कि इसको लेकर राजनीति कर रहे हैं। मैं तो सीधी बात करता हूं कि यह पोटा कानून किसी भी राजनीति पार्टी का ताज बने, पर शर्त इतनी सी है कि इस पोटा कानून को लागू भी करे, तभी मानेगें कि तुम मैं दम हैं। आतंकवादी एक के बाद एक तमाचे हमारी देश की जनता पर ही नहीं जड़ रहे हैं अपितू पूरे भारत देष में इस तमाचे की गूंज सुनाई दे रही है। सरकार के निकम्मेपन के प्रति आष्वस्त आतंकवादी हमला कर रहे हैं, जान-माल की नुकसान कर रहे हैं वो भी खुलेआम चुनौती देकर। वे जानते है कि यहां का हर पोटा अंततः कण्डे में तब्दील हो जाता है। जिसको लेकर राजनीति पार्टी कभी एकमत नहीं हो सकती है। इस देष में पोटा लागू करने की दूर की बात है यहां की खुफिया एजेंसी भी खोखली साबित हो रही हैं। सरकार पोटा की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दे रही, परन्तु वह अपने नये कानून रासुका की तरफ उसका ज्यादा ध्यान है। सरकार का कहना है कि रासुका कानून पोटा जैसा होगा। मैं तो साफ कहता हूं कि जब पोटा लागू करने में इनकी हवा निकल रही है तो यह रासुका कानुन क्या खाक लागू करेगें। आतंकवादियों के खिलाफ जब तक सरकार यह नया कानून लागू करेगी जब तक षायद आतंकवाद दूसरी घटना को अंजाम दे चूके होगें, अब काम पैसेंजर का नहीं है बल्कि सुपरफास्ट का है। मतलब है कि चटमगनी और पट विवाह।
जब आतंकवाद के लिए बार-बार कानून बनाए जाएगे तो उन सालों में खौफ कैसे पैदा होगा। वो तो ओर निर्डर हो जायेगे कि सरकार हमारे लिए नई योजनाएं बना रही है। अरी अंधी सरकार कुछ तो इन मासूम जनता का ख्याल रखो जो इन आतंकवादी घटना का शिकार हो रही हैं। तुम अपनी सरकार बचाने के लिए आतंकवादी को क्यों पनहा दे रहे हो। मैं तो एक स्वतंत्र पत्रकार हूं और मेरे यही विचार है कि इस गोबर को आतंकवाद के मंुह पर दे मारो ताकि वह भी समझ जाए कि भारत किसी से डरता नहीं है। सरकार को यदि आतंकवाद को जड़ से खत्म करना है तो उसे पोटा से भी बड़ा पोटा कानून बना कर लागू करना होगा।

Friday, September 19, 2008

विचार

सारा झगड़ा लोकतंत्र

को ख़त्म करने का है

प्रोफेसर राम पुनियानी पेशे से डॉक्‍टर हैं। फिर आईआईटी मुंबई में पढ़ाते रहे और एक दिन स्वैच्छिक रिटायरमेंट लेकर सांप्रदायिकता की खाई को पाटने में जुट गये। 1992-93 के दंगों ने उन पर गहरा असर डाला। वे कहते हैं कि इन दंगों ने उन्हें समझा दिया था कि सारा झगड़ा लोकतंत्र को ख़त्म करने का है और हिंदु-मुसलमानों के बीच की नफ़रत को ख़त्म करने के मक़सद से
सेंटर फॉ स्टडी ऑफ सोसाइटी एंड सेक्‍यलुरिज़्म के साथ जुड़ गये। इन दिनों देश भर में घूम-घूमकर वर्कशॉप आदि के जरिये सांप्रदायिकता को ख़त्म करने का संदेश फैलाने में लगे हैं। हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा संस्कृति साझी विरासत विषय पर आयोजित दो दिवसीय वर्कशॉप में उन्होंने खुल कर अपने विचार रखे। इसी मौके पर उनसे बात की पत्रकार और ब्‍लॉगर शायदा ने।



मुसलमान असुरक्षित हैं, भयभीत हैं... ऐसा कहा जाता है। लेकिन हिंदुओं की असुरक्षा पर आप बात क्‍यों नहीं करते? या वे मुसलमानों के साथ रहते खुद को असुरक्षित महसूस नहीं कर रहे?

राजनेताओं की सबसे बड़ी सफलता है और यह सफलता असुरक्षा फैला कर ही मिली है। सही है कि हिंदू भी असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। लेकिन यह असुरक्षा उससे बिल्कुल भिन्न है, जो अल्पसंख्‍यक होने की है। हिंदुओं की असुरक्षा डिफेंसिव है और मुसलमानों की शारीरिक और मानसिक यातना को भोग लेने के बाद की है। आज राजनीति इस तरह की जाती है, जिससे कि हिंदुओं में यह भावना फैले कि अगर तुमने लामबंदी नहीं की तो मार दिये जाओगे। मैंने 1992-93 के दंगों में खुद देखा है कि मुंबई में किस तरह अल्पसंख्‍यकों को टारगेट करने से पहले बहुसंयकों में यह फैलाया जाता था कि अगर ऐसा न किया तो हम पर ख़तरा है। यह भावना अब ज़ोर पकड़ चुकी है।



सोच-समझ कर अपनी जनसंख्‍या बढ़ा रहे हैं? परिवार नियोजन जैसे कार्यक्रम पर उनका रवैया नकारात्मक रहता है?


यह मुद्दा कई बार उठ चुका है और हर बार जब आंकड़े सामने आते हैं तो इसे उठाने वाले चुप बैठ जाते हैं। इसमें सच सिर्फ इतना है कि जहां अशिक्षा और ग़रीबी है, वहां परिवारों में ज़्यादा बच्चे नज़र आते हैं। वे हिंदू भी हो सकते हैं और मुसलमान भी। उनके सामने मामला धर्म से ज़्यादा कमाने के लिए पैदा किये जाने वाले हाथों का होता है। उनके सामने परिवार नियोजन से ज़्यादा रोटी की फिक्र होती है। लेकिन इस दिशा में अब बदलाव दिख रहे हैं।



मुसलमान इस देश में रह कर भी पाकिस्तान के हामी हैं, यहां तक कि क्रिकेट में पाकिस्तान के जीत जाने पर उनके जश्न मनाये की ख़बरें सुनाई देती हैं। यह बात भी हिंदुओं में नफ़रत फैलाने का काम तो करती ही है?


ऐसा नहीं है कि मुसलमान पाकिस्तान के हामी हैं। अगर ऐसा होता तो जिस वक्त पाकिस्तान बना, सारे मुसलमान पाकिस्तान चले गये होते। जो लोग नहीं गये, वे इसी देश को अपना मानते रहे और यहीं रह गये। कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं जो पाकिस्तान के जीतने पर खुश होते हों, लेकिन इसे किसी संकट की तरह नहीं लेना चाहिए। ये वो लोग हैं, जो कहीं न कहीं अपने उन बुज़ुर्गों से जुड़ाव महसूस करते हैं जो देश छोड़ कर चले गये थे। अगर सारे मुसलमान पाकिस्तान के हक में होते तो हमारे पास कभी इस कम्‍युनिटी से बढिया प्‍लेयर्स निकल कर आते ही नहीं। वे तो पाकिस्तान के खिलाफ टीम को जिताते हैं न।



पचास हिंदू परिवारों के बीच एक मुसलमान रह सकता है, लेकिन पचास मुसलमानों के बीच एक हिंदू को नहीं देखा जाता, क्‍यों?

देखिए इस बात की तह में जाने के लिए समझना होगा उन मिथकों को, जो मुसलमानों के ख़‍िलाफ इस्तेमाल किये जाते हैं। पुराने समय से कहा जाता है - मुसलमानों ने हिंदुओं के मंदिर तोड़े, बलपूर्वक इस्लाम फैलाया, जजिया कर लगाया, हिंदू महिलाओं के साथ जुल्म किया आदि आदि। इसमें जो भी तथ्य हैं, वे इतिहास में दर्ज हो सकते हैं, लेकिन इससे भी यह साबित नहीं हो जाता कि आम मुसलमान इसके आज ज़‍िम्‍मेदार है। विभाजन के इन मिथकों में यह भी जुड़ गया कि वे हिंसक, गंदे और अशिक्षित होते हैं। इस सारे प्रचार के कारण आम हिंदू दूरी बरतता है, और मुसलमान तो असुरक्षित है ही। इसके नतीजे में हम देखते हैं कि अब ये लोग अपने-अपने इलाके विकसित करते हैं। हमारे यहां मुंबई में तो मुसलमानों को किराये पर घर लेने तक में दिक्कत आती है। इमरान हाशमी जैसे स्टार तक को यह समस्या झेलनी पड़ी थी। बहुत गंभीर है यह समस्या।


ऐसे में या उम्‍मीद बचती है?
उम्‍मीद तो है ही, तभी तो हम यहां यह बात कह पा रहे हैं। हम आम आदमी तक यह संदेश पहुंचाना चाहते हैं कि दोनों धर्मों के लोग अपनी-अपनी आस्था के साथ शांति से रह सकते हैं, अगर वे राजनीति को समझ लें तो। कोई भी धर्म एक दूसरे को नुक़सान पहुंचाने की बात तो कहता ही नहीं। इसमें हमारा फोकस मीडिया और युवाओं पर है। वे अगर सही बात प्रचारित करें, तो यह खाई पाटने में कम समय लगेगा।
ये इंटरव्यू दैनिक भास्‍कर के चंडीगढ़ एडिशन 16 जुलाई को पब्लिश हुआ था।




Tuesday, September 16, 2008

भारत को चुनौती

मनोज कुमार राठौर
आतंकवाद बनाम भारत के इस फाइनल मैच में आखिरकार जीत आतंकवाद की हुई है, जो भारत के लिए एक चुनौती है। आतंकवाद की टीम के कप्तान इंडियन मुजाहिदीन ने अपनी टीम को आपरेशन ‘बेड’ के जरिए जीत दिलाई। यह हार भारत के लिए काफी शर्मनाक है, क्योंकि भारत को इस आपरेशन की जानकारी पहले से थी जिसे उसने गंभीरता से नहीं लिया। अब अगला मैच जो खेला जाएगा, वो तो चोकने बाला होगा क्योकि इस मैच में आतंकवादी अपनी दूसरे आपरेशन ‘बेडमेन‘ की सहायता लेगे। अब देखना यह होगा कि क्या भारत इस मैच हो हराता है या फिर जीत हासिल करता है? यह तो भारत की रणनीति ही बता सकती है।
बेंगलूर और इलाहाबाद में हुई सीरियल बम धमाकों के दौरान भारत की खुफिया एजेंसी को एक ई-मेल मिला था जिसमें आतंकवादियों ने आपरेशन बेड का जिक्र किया था। आजतक टीवी चैनल पर आपरेशन बेड का खुलासा किया गया जिसमें कहा गया था कि दिल्ली धमाका आपरेशन बेड का हिस्सा है। बेड याने बेंगलूर, अहमदाबाद और दिल्ली। भारत सरकार को भी यह सूचना थी कि अब आतंकवादियों का अगला निशाना दिल्ली है। मगर दिल्ली का प्रशासन इस बात को हल्के में ले रहा था, जिसका खमियाजा उसे 35 लोग की जान गवाकर देना पड़ा। देश के दिल पर यह ऐसा घाव है जिसकी पूर्ति मुआवजे की राशि से नहीं की जा सकती। इस धमाके में मरने वालों को दिल्ली सरकार ने पांच लाख और केंद्र सरकार ने तीन लाख रुपए दिये। आतंकवाद में होने वाले हर धमाके में जनता का मुंह बंद करने के लिए उन्हें यह मुहावजा दिया जाता है, ताकि लोग इस बात को भूल जाए, पर शायद सरकार यह नहीं जानती है कि जनता की भी आंखे खुल गई है। अब वह भी आतंकवाद का खातमा चाहती है। मीडिया के सचेत करने के बाद भी सरकार ने इस पर कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाए? हालांकि गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने कहा है कि सरकार के पास हमेशा आतंकवादी हमलों की सूचना होती है लेकिन समय और स्थान के बारे में पता नहीं होता। शायद हमारे गृहमंत्री को यह नहीं पता है कि यदि आतंकवादी अपने पूरे मनसूफे साफ कर देगें तो सरकार का काम क्या रहेगा? अब भारत में आतंकवाद का नंगा नाच देखना आम हो गया। आतंकवाद इतने बेखोफ हो गये हैं कि हमले से पहले भारत को चेतावनी देते है। अब तो ऐसा लगता है कि आतंकवादी भारत में धमके करने को केवल एक खेल समझते हैं जिसमें भारत को हराने में उनहे कोई खास मशकत नहीं करना पड़ती है। भारत को आतंकवाद की इस जंग को जितना है तो सबसे पहले उसे चौंकनना रहना पडे़गा।








Friday, September 12, 2008

बाढ़ पीड़ितों का तो भगवान मालिक है!

मनोज कुमार राठौर,भोपाल
केन्द्र सरकार ने प्राकृतिक आपदा में फंसे लोगों को राष्ट्रीय आपदा कोष से एक हजार करोड़ रुपए की राहत राशिऔर लगभग सवा लाख टन खाद्यान्न दिया, पर यह आवश्यकता के अनुरुप बहुत कम है। यह सही बात है कि बाढ़ग्रस्त इलाकों में सेना अपनी सक्रिय भूमिका निभा रही है। सरकार के मुलाजिम मानवता के दर्द को समझते हैं, लेकिन सरकार ने एक बार मदद देकर शायद अपना हाथ पीछे कर लिया है। राहत समाग्री को लेकर बाढ़ पीडितों में अफरातफरी मची है। वे दिन-दिन भर आसमान की ओर टकटकी लगा कर देखते रहते है कि ऊपर से कोई राहत विमान आए और उनके लिए राहत की समाग्री नीचे फेंके। जब परमाणु करार समझौता पर एक बार फिर संकट की स्थिति आन पड़ी, तो सरकार का ध्यान तुरंत गया और परमाणु की डगमागाती नौका को किनारे लगाया। पर अब ऐसा लगता है कि सरकार इस प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए कोई खास रणनीति तैयार नहीं कर रही है। उत्तरी बिहार जलप्रलय से विलख रहा हैै। उसकी सुध लेने वाला कोई नहीं। ग्रामीण इलाकों से लेकर षहरों और राहत शिविरों से लेकर अस्पतालों तक व्यवस्थाओं का ऐसा आलम है कि बाढ़ पीड़ितों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। पीड़ितों की संख्या के अनुपात में राहत शिविरों की संख्या बहुत कम है। बाढ़ के समय सरकार अपने दायित्व को ठीक तरीके से नहीं निभा पा रही है, तो बाढ़ के बाद होने वाली समस्या का सामना कैसे करेगी? सवाल यह उठता है कि बाढ़ के बाद उन इलाकों का प्रतिस्थापन का कार्य और महामारियों से बचाव की व्यवस्था जैसी समस्या का सामना सरकार किस ढं़ग से करेगी? बिहार की इस विनाशलीला ने तो बाढ़ नियंत्रण और आपदा प्रबंधन-तंत्र दोनों की पोल खोल दी। राज्य सरकार यह कहकर अपना पलड़ा झाड़ रही है कि यहां हर वर्ष बाढ़ आती है और एक गरीब प्रदेष होने के कारण वह उससे बचने और पीड़ितों की मदद करने के पुख्ता इंतजाम करने में असफल है। इसीलिए बिहार सरकार केन्द्र सरकार का मुंह तक रही है। प्राकृतिक आपदा कुछ कहकर नहीं आती है। इसलिए यह किसी एक राज्य की आपदा नहीं है वरन् सम्पूर्ण भारत देष की आपदा और समस्या है। कोसी के इस कहर से सरकार को निज़ात दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाना चाहिए। प्रलय की यह घड़ी इतिहास में दर्ज हो गई है। बाढ़ का मुख्य कारण नेपाल स्थित कुसहा बैराज बांध है। जिसके टूटने से यह परिस्थिति उत्पन्न हुई। सरकार को इस संदर्भ में नेपाल सरकार से विचार विमर्ष करना चाहिए और उसका पुख्ता इंतजाम भी करना चाहिए, ताकि इस विनाषमय कोहराम का मंजर दौबारा नहीं हो। इस संकट की घड़ी में ईमानदारी और सक्षमता का निर्वहन करते हुए निस्वार्थ भाव से सरकार को मदद करना चाहिए। इस प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए भारत के आम नागरिकों की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह खुलकर मदद के लिए सामने आए। सरकारी और गैरसरकारी दोनों संस्थाएं भी सहायता करें। यदि भारत का प्रत्येक नागरिक एक-एक रुपए भी देते हैं तो अरबों रुपए एकत्रित किए जा सकते हैं जो बाढ़ पीड़ितों के लिए वरदान साबित होगा। सरकार के अलावा भी यह हमारा मानवीय और देषहित के प्रति कर्तव्य बनता है कि बाढ़ के इस कोहराम से निपटने के लिए सभी भारतवासी दृढ़ संकल्पित ।

लेख

एक ही थाली में भोजन करते थे अशफाक व बिस्मिल
मनोज कुमार राठौर
अशफाक से बिस्मिल इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने लिखा है-‘मेरे हृदय से यह विचार जाता रहा कि हिन्दू-मुसलमान में कोई भेद है।’ वे बिस्मिल को हमेशा इस बात के लिए अनुरोध करते थे कि वे उर्दू में भी लेख व पुस्तक लिखें, ताकि मुसलमानों तक भी उनके विचार ।
अशफाक उल्ला खां एक देशभक्त क्रांतिकारी होने के साथ ही हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द की मिशाल भी थे। यही वजह है कि पं. रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खां की मित्रता परवान चढ़ी। पहली बार बिस्मिल जब अशफाक से मिले, तो उन्होंने इस मुस्लिम छात्र की बातों का जवाब बड़े उपेक्षित मन से दिया। अशफाक उल्ला खां इससे विचलित नहीं हुए और बिस्मिल को यह विश्वास दिलाकर ही दम लिया कि वह भी एक सच्चे देशभक्त हैं। बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है-‘तुम अपने इष्टमित्रों द्वारा इस बात का विश्वास दिलाने की कोशिश की कि तुम बनावटी आदमी नहीं हो, तुम्हारे दिल में मुल्क की खिदमत करने की ख्वाहिश थी। अंत में तुम्हारी विजय हुई।...तुम सच्चे मित्र बन गये।...सबको आश्चर्य था कि एक कट्टर आर्य समाजी और एक मुसलमान का कैसा मेल?’ इन दोनों में अगाध प्रेम था। अधिकतर वे एक थाली में खाना खाया करते थे। अशफाक से बिस्मिल इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने लिखा है-‘मेरे हृदय से यह विचार जाता रहा कि हिन्दू-मुसलमान में कोई भेद है।’ वे बिस्मिल को हमेशा इस बात के लिए अनुरोध करते थे कि वे उर्दू में भी लेख व पुस्तक लिखें, ताकि मुसलमानों तक भी उनके विचार पहुंचे। एक बार अशफाक बीमार हुए और बेहोशी की हालत में वह ‘राम’ कह रहते थे। वहां मौजूद सभी को अचरज हुआ कि वह ‘राम...राम’ क्यों कह रहा है, उन्हें तो ‘अल्लाह-अल्लाह’ कहना चाहिए। पास मौजूद एक मित्र ‘राम’ के भेद को जान गये और फिर पं. राम प्रसाद बिस्मिल को बुलाया गया। दरअसल अशफाक उन्हें ‘राम’ कहकर ही पुकारते थे।
इस तरह दो पंथों की धाराएं एक हो गई थीं, जिनके प्रवाह का एक मात्र उद्देश्य था-भारत मां को पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त कराना। अपने इस मिशन के साथ 9 अगस्त 1925 को पं। रामप्रसाद बिस्मिल और अषफाक उल्ला खा ने चंद्रषेखर आज़ाद, राजेन्द्र लोहड़ी, ठाकुर रोशन सिंह, सचिन्द्र बख्शी, केशव चक्रवर्ती, बनवारी लाल, मुकनुद लाल और मन्मथ नाथ गुप्त के साथ मिलकर लखनऊ के नजदीक काकोरी में सरकारी ट्रेन में ले जाये जा रहे उस ख़जाने को लूट लिया, जो वास्तव में भारत का था। इस घटना में शामिल क्रांतिकारियों की तलाश में जगह-जगह छापे मारे जाने लगे। अंगरेज़ों ने एक-एक कर काकोरी की घटना में शामिल सभी क्रांतिकारियों को पकड़ लिया, लेकिन वे चंद्रषेखर आज़ाद को पकड़ने में असफल रहे। अंगरेज़ों ने बंदी बनाये जाने के बाद अशफाक उल्ला खां को सरकारी गवाह बनाने के लिए कई चालें चलीं, लेकिन वे विचलित नहीं हुए। उनका इरादा अटल था। भारत मां के इस सपूत पर अंगरेज़ों की किसी भी धमकी का कोई असर नहीं हुआ। अंगरेज़ों ने तो उन्हें हिन्दू-मुस्लिम अलगाव की मानसिकता में बंधने की भरसक कोशिश की और यहां तक कहा गया कि अगर भारत आज़ाद भी हो गया, तो तुम्हारी कौम को कुछ हासिल नहीं होगा। मगर अंगरेज़ शायद इस बात से बेखबर थे कि एक देषभक्त के लिए देष धर्म-सांप्रदाय से ऊपर होता है। यही बात अषफाक उल्ला के साथ भी थी। तभी तो उन्होंने अंगरेज़ों का मुंह यह कहकर बंद कर दिया कि ‘फूट डालो और शासन करो’ की दुर्भावनापूर्ण नीति में वह फंसने वाले नहीं हैं। इसलिए, अशफाक ने अंगरेजों के बहकावे में आने के बजाय देश की खातिर फांसी को गले लगा लिया है। उन्हें 19 दिसंबर 1927 को फांसी दे दी गई। इस घटना में शामिल अन्य सहयोगी क्रांतिकारियों को भी 17 से 21 दिसंबर 1927 के दौरान फांसी दे दी गई। अपने अंतिम दिनों में जेल में रहते हुए अषफाक ने कुरान पढ़ा। वे एक सच्चे मुसलमान, मित्र और इससे भी बढ़कर जांबाज देशभक्त थे। उनकी शहादत स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान ही नहीं था, बल्कि यह सांप्रदायिक एकता व सद्भावना की मिशाल है, जिसके दम पर ही देश में सुख-शान्ति कायम रह सकती है।