Tuesday, September 30, 2008
कुपोषण बनी देशव्यापी समस्या
Monday, September 29, 2008
मत डर हिन्दुस्तान, क्या करेगा पाकिस्तान
मनोज कुमार राठौर
मत डर हिन्दुस्तान
क्या करेगा पाकिस्तान
हमें पता आतंकवादी कौन
जब भी क्यों हम रहते मौन
मासूमो की जान है जाती
सरकार तो बस नोट दिखाती
लगता नेताओं की है सांठ-गांठ
इसलिए सुनती है उनकी बात
पोटा कानून लागू नहीं करती
क्यों नये कानून की माला जपती
चुनौती देकर करते हमले
फिर भी हम नहीं होते चोकन्ना
आख़िर क्यों नहीं लेतें बदला
कब तक सहगें हम यह हमला
जब किया है परमाणु करार
तो इस पर भी करो विचार
अब तो करना होगा युद्ध
तभी होगें हम सब मुक्त
कब तक करे हम समझोता
बह देते हर समय धोखा
सभी एक ही थाली में हैं खाते
इसलिए घर के भेदी लंका ढाते
अब समझोते की नहीं
समझाने की बारी है
चंद मिनटों में करो यह काम
भारत मां का लेकर नाम
Wednesday, September 24, 2008
आतंकवाद भाई
Saturday, September 20, 2008
व्यंग्य
तुम्हें पोटे का पोटा..
पोटा कानून को लेकर कर पार्टी आमने-सामने हैं। यह वह पोटा है जिस पर सभी राजनीति दल अपनी रोटियां सेंकना चाहते हैं। हां मैं बात कर रहा हूं आतंकवाद निरोधक कानून (पोटा) की जो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल से अभी तक अधर में है। आतंकवाद से निपटने के लिए बनाए गए इस कानून की तो मिट्टीपलित हो रही है। अब तो ऐसा लगता है कि पोटा न तो घर का है और न ही घाट का। उसका तो भगवान ही मालिक है। राजनीतिक पार्टियां तो यही चाहती है कि पोटा का ताज उनके सिर पर सजे। पर शायद इस पोटा-पोटा की रट में तो उसका आस्तिव ही समाप्त हो जाएगा। हाए रे यह पोटा, किस ने बनाया यह पोटा, यह सवाल सभी के मन में है। जब पोटा का प्रयोग ही नहीं किया जा रहा तो यह पोटा कानून हमारे लिए बेकार है। पोटा के रचियता यह भूल गए थे कि यह पोटा आखिर क्यों बनाया गया।
मालवी भाषा में पोटा का अर्थ होता है गोबर। भारत में गोबर के कण्डे का बहुत चलन है। जिसके पीछे कभी-कभी लड़ाई भी हो जाती है। मोहल्ले की गली में यदि गोबर पड़ा है तो मोहल्ले के कई लोग आपस में झगड़ने लगते हैं, जिसमें एक बोलता है कि यह मेरा गोबर है, तो दूसरा कहता है कि इस पर मेरा अधिकार है। सभी को मालूम है कि गोबर से कण्डे बनाए जाते हैं। पर यह बात मुझे हजम नहीं होती कि इस गोबर के लिए आखिर लोग क्यों लड़ते हैं। जी हां मेरा इसारा उन राजनीति पार्टियों की तरफ है जो इस गोबर को लेकर लड़ रहे हैं। इस गोबर के पीछे आखिर लड़ाई क्यों की जाती है। यह गोबर (पोटा) किसी के भी पास जाए। लक्ष्य यही होना चाहिए की इसका कण्डे अवश्य बने। नेताओं ने तो इतनी टुच्चाई दिखाई है कि इसको लेकर राजनीति कर रहे हैं। मैं तो सीधी बात करता हूं कि यह पोटा कानून किसी भी राजनीति पार्टी का ताज बने, पर शर्त इतनी सी है कि इस पोटा कानून को लागू भी करे, तभी मानेगें कि तुम मैं दम हैं। आतंकवादी एक के बाद एक तमाचे हमारी देश की जनता पर ही नहीं जड़ रहे हैं अपितू पूरे भारत देष में इस तमाचे की गूंज सुनाई दे रही है। सरकार के निकम्मेपन के प्रति आष्वस्त आतंकवादी हमला कर रहे हैं, जान-माल की नुकसान कर रहे हैं वो भी खुलेआम चुनौती देकर। वे जानते है कि यहां का हर पोटा अंततः कण्डे में तब्दील हो जाता है। जिसको लेकर राजनीति पार्टी कभी एकमत नहीं हो सकती है। इस देष में पोटा लागू करने की दूर की बात है यहां की खुफिया एजेंसी भी खोखली साबित हो रही हैं। सरकार पोटा की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दे रही, परन्तु वह अपने नये कानून रासुका की तरफ उसका ज्यादा ध्यान है। सरकार का कहना है कि रासुका कानून पोटा जैसा होगा। मैं तो साफ कहता हूं कि जब पोटा लागू करने में इनकी हवा निकल रही है तो यह रासुका कानुन क्या खाक लागू करेगें। आतंकवादियों के खिलाफ जब तक सरकार यह नया कानून लागू करेगी जब तक षायद आतंकवाद दूसरी घटना को अंजाम दे चूके होगें, अब काम पैसेंजर का नहीं है बल्कि सुपरफास्ट का है। मतलब है कि चटमगनी और पट विवाह।
Friday, September 19, 2008
विचार
को ख़त्म करने का है
प्रोफेसर राम पुनियानी पेशे से डॉक्टर हैं। फिर आईआईटी मुंबई में पढ़ाते रहे और एक दिन स्वैच्छिक रिटायरमेंट लेकर सांप्रदायिकता की खाई को पाटने में जुट गये। 1992-93 के दंगों ने उन पर गहरा असर डाला। वे कहते हैं कि इन दंगों ने उन्हें समझा दिया था कि सारा झगड़ा लोकतंत्र को ख़त्म करने का है और हिंदु-मुसलमानों के बीच की नफ़रत को ख़त्म करने के मक़सद से
सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसाइटी एंड सेक्यलुरिज़्म के साथ जुड़ गये। इन दिनों देश भर में घूम-घूमकर वर्कशॉप आदि के जरिये सांप्रदायिकता को ख़त्म करने का संदेश फैलाने में लगे हैं। हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा संस्कृति साझी विरासत विषय पर आयोजित दो दिवसीय वर्कशॉप में उन्होंने खुल कर अपने विचार रखे। इसी मौके पर उनसे बात की पत्रकार और ब्लॉगर शायदा ने।
राजनेताओं की सबसे बड़ी सफलता है और यह सफलता असुरक्षा फैला कर ही मिली है। सही है कि हिंदू भी असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। लेकिन यह असुरक्षा उससे बिल्कुल भिन्न है, जो अल्पसंख्यक होने की है। हिंदुओं की असुरक्षा डिफेंसिव है और मुसलमानों की शारीरिक और मानसिक यातना को भोग लेने के बाद की है। आज राजनीति इस तरह की जाती है, जिससे कि हिंदुओं में यह भावना फैले कि अगर तुमने लामबंदी नहीं की तो मार दिये जाओगे। मैंने 1992-93 के दंगों में खुद देखा है कि मुंबई में किस तरह अल्पसंख्यकों को टारगेट करने से पहले बहुसंयकों में यह फैलाया जाता था कि अगर ऐसा न किया तो हम पर ख़तरा है। यह भावना अब ज़ोर पकड़ चुकी है।
सोच-समझ कर अपनी जनसंख्या बढ़ा रहे हैं? परिवार नियोजन जैसे कार्यक्रम पर उनका रवैया नकारात्मक रहता है?
यह मुद्दा कई बार उठ चुका है और हर बार जब आंकड़े सामने आते हैं तो इसे उठाने वाले चुप बैठ जाते हैं। इसमें सच सिर्फ इतना है कि जहां अशिक्षा और ग़रीबी है, वहां परिवारों में ज़्यादा बच्चे नज़र आते हैं। वे हिंदू भी हो सकते हैं और मुसलमान भी। उनके सामने मामला धर्म से ज़्यादा कमाने के लिए पैदा किये जाने वाले हाथों का होता है। उनके सामने परिवार नियोजन से ज़्यादा रोटी की फिक्र होती है। लेकिन इस दिशा में अब बदलाव दिख रहे हैं।
मुसलमान इस देश में रह कर भी पाकिस्तान के हामी हैं, यहां तक कि क्रिकेट में पाकिस्तान के जीत जाने पर उनके जश्न मनाये की ख़बरें सुनाई देती हैं। यह बात भी हिंदुओं में नफ़रत फैलाने का काम तो करती ही है?
ऐसा नहीं है कि मुसलमान पाकिस्तान के हामी हैं। अगर ऐसा होता तो जिस वक्त पाकिस्तान बना, सारे मुसलमान पाकिस्तान चले गये होते। जो लोग नहीं गये, वे इसी देश को अपना मानते रहे और यहीं रह गये। कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं जो पाकिस्तान के जीतने पर खुश होते हों, लेकिन इसे किसी संकट की तरह नहीं लेना चाहिए। ये वो लोग हैं, जो कहीं न कहीं अपने उन बुज़ुर्गों से जुड़ाव महसूस करते हैं जो देश छोड़ कर चले गये थे। अगर सारे मुसलमान पाकिस्तान के हक में होते तो हमारे पास कभी इस कम्युनिटी से बढिया प्लेयर्स निकल कर आते ही नहीं। वे तो पाकिस्तान के खिलाफ टीम को जिताते हैं न।
पचास हिंदू परिवारों के बीच एक मुसलमान रह सकता है, लेकिन पचास मुसलमानों के बीच एक हिंदू को नहीं देखा जाता, क्यों?
देखिए इस बात की तह में जाने के लिए समझना होगा उन मिथकों को, जो मुसलमानों के ख़िलाफ इस्तेमाल किये जाते हैं। पुराने समय से कहा जाता है - मुसलमानों ने हिंदुओं के मंदिर तोड़े, बलपूर्वक इस्लाम फैलाया, जजिया कर लगाया, हिंदू महिलाओं के साथ जुल्म किया आदि आदि। इसमें जो भी तथ्य हैं, वे इतिहास में दर्ज हो सकते हैं, लेकिन इससे भी यह साबित नहीं हो जाता कि आम मुसलमान इसके आज ज़िम्मेदार है। विभाजन के इन मिथकों में यह भी जुड़ गया कि वे हिंसक, गंदे और अशिक्षित होते हैं। इस सारे प्रचार के कारण आम हिंदू दूरी बरतता है, और मुसलमान तो असुरक्षित है ही। इसके नतीजे में हम देखते हैं कि अब ये लोग अपने-अपने इलाके विकसित करते हैं। हमारे यहां मुंबई में तो मुसलमानों को किराये पर घर लेने तक में दिक्कत आती है। इमरान हाशमी जैसे स्टार तक को यह समस्या झेलनी पड़ी थी। बहुत गंभीर है यह समस्या।
ऐसे में या उम्मीद बचती है?
उम्मीद तो है ही, तभी तो हम यहां यह बात कह पा रहे हैं। हम आम आदमी तक यह संदेश पहुंचाना चाहते हैं कि दोनों धर्मों के लोग अपनी-अपनी आस्था के साथ शांति से रह सकते हैं, अगर वे राजनीति को समझ लें तो। कोई भी धर्म एक दूसरे को नुक़सान पहुंचाने की बात तो कहता ही नहीं। इसमें हमारा फोकस मीडिया और युवाओं पर है। वे अगर सही बात प्रचारित करें, तो यह खाई पाटने में कम समय लगेगा।
ये इंटरव्यू दैनिक भास्कर के चंडीगढ़ एडिशन 16 जुलाई को पब्लिश हुआ था।
Tuesday, September 16, 2008
भारत को चुनौती
आतंकवाद बनाम भारत के इस फाइनल मैच में आखिरकार जीत आतंकवाद की हुई है, जो भारत के लिए एक चुनौती है। आतंकवाद की टीम के कप्तान इंडियन मुजाहिदीन ने अपनी टीम को आपरेशन ‘बेड’ के जरिए जीत दिलाई। यह हार भारत के लिए काफी शर्मनाक है, क्योंकि भारत को इस आपरेशन की जानकारी पहले से थी जिसे उसने गंभीरता से नहीं लिया। अब अगला मैच जो खेला जाएगा, वो तो चोकने बाला होगा क्योकि इस मैच में आतंकवादी अपनी दूसरे आपरेशन ‘बेडमेन‘ की सहायता लेगे। अब देखना यह होगा कि क्या भारत इस मैच हो हराता है या फिर जीत हासिल करता है? यह तो भारत की रणनीति ही बता सकती है।
Friday, September 12, 2008
बाढ़ पीड़ितों का तो भगवान मालिक है!
लेख
मनोज कुमार राठौर