Saturday, March 28, 2009

एक नन्हा क्रान्तिकारी

एक नन्हा शहीद
नाम - गिरराज
उम्र - 8 साल
कसूर - भारत मां की जय
मनोज कुमार राठौर
भारत देश की स्वतंत्रता में कई देशभक्तों ने अपने प्राणों की आहूती दे दी। जब गणतंत्र दिवस या स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है तो देश के हर एक नागरिक के मन में देश भक्ति की लहर दौड़ने लगती है। भारत 200 साल की गुलामी के बाद आजाद हो पाया था। इन 200 सालों की लड़ाई में कई देशभक्त शहीद हो गए। इन देशभक्तों में भारत मां के सपूत कहे जाने वाले भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुखदेव, राजगुरु, महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के नाम भी प्रचलित है। इन सभी देशभक्तों का नाम आज हर एक भारतवासी की जुबान पर है। भारत के इतिहास में कही न कही इन शहिदों का जिक्र मिलता है। मगर इनके अलावा ऐसे भी देशभक्त हैं जिन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई में सक्रिय भूमिका निभाई, परन्तु इतिहास में इन शहीदों का नामों निशान तक नहीं है। ऐसे देशभक्तों में यदि 8 साल का बच्चा शामिल मिल हो तो हम सबको आष्चर्य होगा, लेकिन यह सत्य है। आंखों को भिगाने वाली यह दास्तान इतिहास के पन्नों पर दर्ज नहीं है। यह हमारा दुर्भाग्य कहे या फिर गलती। यह तो इतिहासकार ही बता सकते हैं।
सोने की चिड़िया कहे जाने वाले इस देश में सन् 1900 में आजादी की लहर चल रही थी। इसी दौरान एक अंग्रेज लार्ड विलियम बैटिक के पास एक नन्हा बालक गिरराज काम करता था। उस समय गिरराज की उम्र करी 8 साल रही होगी। गिरराज आए दिन क्रंातिकारियों की बाते सुनता था। वह गली से निकलने वाले क्रांतिकारियों के नारे और उनकी बुलंद आवाजों को सुनकर उसे ऐसा महसूस होता की वह उस क्रांतिकारी दल का नेतृत्व कर रहा हो। मगर एक मामूली सी नौकरी करने वाला आठ साल गिरराज आखिर कर भी क्या सकता था। आजादी का ज़ज्बा उसके दिल दिमाग में उमढ़ने लगा के साथ देश को आजादी दिलाने के ख्याल उसके मन में आने लगे। गिरराज बचपन से एक सच्चा देश भक्त था। उसके अंग-अंग में देशभक्ति का खून दौड़ रहा था, लेकिन उसकी उम्र इतनी अधिक नहीं थी कि वह क्रंातिकारी बन पता। घर से धनवान भी नहीं था कि साले गोरों का विरोध कर सके। नन्हा बालक तो अपने पेट को पालने के लिए लार्ड विलियम के पास नौकरी करता था। झाडंू, पौछा लगाने वाला एक साधारण सा बालक अग्रंेज लार्ड विलियम बैटिक का विरोध कैसे करता। इसके बावजूद उसके मन में अपने देश के प्रति अटूट श्रद्धा थी। विलियम किसी काम से बाहर गया हुआ था। गिरराज घर में अकेला था। देशभक्ति धून में उसने विलियम के घर की दीवारों पर भारत मां की जय लिख दिया ।लंबे समय से बाहर होने के कारण विलियम को यह बात पता नहीं थी। मगर कहते हंै कि सच एक न एक दिन सामने आ ही जाता है। आखिरकार जब विलियम घर लौट कर आया तो दीवारों का दृष्य देखकर गुस्से से लाल-पीला हो गया। आंखों में गुस्सा झलक रहा था। ऐसा लगता था कि वह उसे गोली से उड़ा देगा। लेकिन यदि वह ऐसा कैसे कर सकता था क्योकि उसे नौकर कहां से मिलता। लार्ड विलियम के दिमाग में यह बात बैठ गई कि जो बालक बचपन में अपने देश से इतना प्यार करता है, तो जब बड़ा होगा तो क्या करेगा। विलियम ने गिरराज से इस गलती के लिए माफी मांगने को कहां, लेकिन गिरराज माफी कहां मांगने वाला था। उसने विलियम से कहा कि जो मैंने लिखा वह सत्य है। इसमें माफी मांगने का सवाल ही नहीं होता। गिरराज अपनी बात पर अटल था। लार्ड को उसकी जिद रास नहीं आई और उसने 8 साल की मासूम सी जान पर कोढ़े बरसाने का आदेश दे दिया। नन्हे बालक को भारत माता के सम्मान के लिए कोढ़े सहना मंजूर था। लेकिन उसे गोरों के सामने सिर झुकाना कदाचित स्वीकार नहीं था। किसी ने सही कहा था कि सर काटा सकते हैं, लेकिन सिर झूका सकते नहीं। आज यह पंक्तियां याद आती है। कोढो की दर्दभरी मार गिरराज सहन नहीं सका और इस नन्हें बालक ने जमीन पर दम तोड़ दिया। इस नन्हें देष भक्त ने अपने देश के सम्मान के खातिर अपना बलिदान दे दिया और भारत मां के दूध का कर्ज चुकाया। इसे हमारा दुर्भाग्य या फिर इतिहासकारों की गलती कह सकते हैं कि आज भारत के इतिहास में इस नन्हे बालक का इतना बडा बलिदान दर्ज नहीं है।
भूल न जाओं उनको
जरा याद करो कुर्बानी
ऐ मेरे वतन के लोगों...

Wednesday, March 25, 2009

जलियांवाला बाग की लहर चहूं दिशा में...

मनोज कुमार राठौर
स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में 13 अप्रैल 1919 का दिन आँसुओं की बूंदों से लिखा गया है, जब अंग्रेजों ने अमृतसर के जलियांवाला बाग में सभा कर रहे निहत्थे भारतीयों पर अंधाधुंध गोलियां चलाकर सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार दिया। मरने वालों में मां के सीने से चिपटे दुधमुँहे बच्चे, जीवन की संध्या वेला में देश की आजादी का ख्वाब देख रहे बूढ़े और देश के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार युवा सभी शामिल थे।
हदृय विदारक इस घटना से भारत मां का सीना छलनी हो गया। इस घाव को भरने के लिए महान क्रांतिकारी ऊधमसिंह और अन्य क्रांतिकारियों की टोलियों के मतवालों ने इसका बीड़ा उठाया। गोरे का अंत करीब था। वह इस गलत-फहमी में थे कि भारतवासी डर गए। आजादी के दौरान घटनाएं तो अनेकों हुई, लेकिन जलियंावाला बाग का नरसंहार ने भारत को हिला कर रख दिया। ऐसे में हम कहां चुप बैठने वाला थे। हिन्दू, मुस्लिम और सिख एकता की नींव रखने वाले ऊधमसिंह उर्फ राम मोहम्मद आजादसिंह ने इस बर्बर घटना के लिए माइकल ओ डायर से बदला लेने की ठानी। माइक उस समय पंजाब प्रांत का गवर्नर था। गोरे अंग्रेज अपनी इस कायरता पर बहुत खुश थे, वह सोचने लगे थे कि भारतीयों का साहस खत्म हो गया है। उन सालो को यह नहीं पता कि जब गीदड़ की मौत आती है तो वह गांव की तरफ भागता है। ऐसा ही माइकल के साथ हुआ, वह भी जगह-जगह भागता रहा। ऐसे हालात में दिलों के जख्मों को भरने के लिए माइकल को मौत के घाट उतारा जरूरी था। लेकिन अपने देश के क्रंातिकारी चंद्रशेखर आजाद, राजगुरू, सुखदेव और भगतसिंह उसके विनाश के लिए पहाड़ की तरह खड़े थे।
जलियंावाला बाग में गवर्नर के आदेश पर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड, एडवर्ड हैरी डायर, जनरल डायर ने 90 सैनिकों को लेकर जलियांवाला बाग को चारों तरफ से घेर कर मशीनगनों से गोलियां चलवाईं। अपनी जान बचाने के लिए सब उस स्वर्गीय रूपी कुंए में शमा गए जो आज भी उनके बलिदान का याद दिलाता है। अब तो वहां जाकर ऐसा प्रतीक होता है कि कुंए में बच्चों का विलाप, मां की पुकार और बुजुर्गों कराहना चारों दिशाओं में गूंज रही है। ऊधमसिंह ने शपथ ली कि वह माइकल ओ डायर को मारकर इस घटना का बदला लेगा। मिषन माइकल के लिए ऊधमसिंह ने अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमेरिका की यात्रा की। अंगे्रजों का अंत अब करीब था। उसने पूरे भारत को ललकारा। मां की गोद में खेल रहे बच्चे की आंखों में बदले की भावना थी। 1934 में ऊधमसिंह लंदन पहुंचे और वहाँ 9 एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड़ पर रहने लगे। वहां उन्होंने यात्रा के उद्देश्य से एक कार खरीदी और साथ में अपना मिशन पूरा करने के लिए छह गोलियों वाली एक रिवाल्वर भी खरीद ली। भारत का यह वीर क्रांतिकारी माइकल ओ डायर को ठिकाने लगाने के लिए उचित वक्त का इंतजार करने लगा। जलियांवाला बाग हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को रायल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के काक्सटन हाल में बैठक थी जहां माइकल ओ डायर भी वक्ताओं में से एक था। ऊधमसिंह उस दिन समय से ही बैठक स्थल पर पहुँच गए। अपनी रिवाल्वर उन्होंने एक मोटी किताब में छिपा ली। इसके लिए उन्होंने किताब के पृष्ठों को रिवाल्वर के आकार में उस तरह से काट लिया, जिससे डायर की जान लेने वाला हथियार आसानी से छिपाया जा सके। बैठक के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए ऊधमसिंह ने माइकल ओ डायर पर गोलियाँ दाग दीं। दो गोलियाँ डायर को लगीं, जिससे उसकी तत्काल मौत हो गई। भारत मां के दूध का कर्ज इस सपूत ने निभाया और 31 जुलाई 1940 को पेंटनविले जेल में फांसी दी गई। आज भी जलियांवाला बाग नरसंहार, अमृतसर नरसंहार के रूप में जाना है। जलियांवाला बाग में अंगे्रजों ने 10 मिनट में 1500 से अधिक मौतें, 2000 से अधिक घायल कर दिया।
ऐतिहासिक धरोहर में जलियांवाला बाग एक स्मारक उद्यान है। उद्यान में जाने के बाद जलीयांवाला बाग के यादें ताजा हो जाती हैं। आंखों के सामने उन बेगूनाहों की लाशे नजर आने लगती हैं। मानो हम से कह रही हों कि मेरा भारत देश कितना प्यारा है। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में आजादी के लिए एक नया मोड़ साबित हुआ। यह बाग उन शहीदों की याद में बनवाया गया जो लोगों को गोलियों से बचने के लिए कुंए में कूद गए थे। दीवारों पर गोली के निशान आज भी दिखाई देते हैं। आज भी अमृतसर के इस उद्यान में आजादी की लहरें हवाओं में आजादी की दस्तान बयान करती है।