Monday, October 27, 2008

अमीरों की दीवाली, गरीबों का दीवाला








मनोज
कुमार राठौर

हमारे देश में दीवाली का त्यौहार बडे़ धूमधाम से मनाया जाता है। बाजार में अनुमान से कहीं अधिक व्यवसाय होता है। मंदी के इस दौर में भी अरबों का कारोबार किया जा रहा है, लेकिन मंदी की गाज अमीरों पर नहीं गिरी, शायद दीवाली मनाने का हक उन्हे ही है। गरीबों का दीवाला निकल रहा है।

जहां एक ओर बाजार में सोना, चांदी, दो पहिया वाहन, इलेक्ट्राॅनिक सामान, कपड़ा, पटाखे, क्राकरी, फर्नीचर और सजावटी सामान के अलावा प्रापर्टी की खरीदी हो रही है। दूसरी ओर किसी ने यह अंदाजा लगाया है कि यह खरीदी कौन कर रहा है? कोई आम आदमी तो यह खरीदी नहीं कर सकता है क्योकि वह दिन भर मजदूरी करता है जब जाकर उसका पेट भरता है। ऐसे में वह दीवाली कैसे मनाऐगां ? बस वह आसमान की आतिषबाजी को देखकर संतुष्ट हो सकता है। बाजारों में मिष्ठान भंडारों में तरह-तरह की मिठाईयां सजी होती है, बस वह उसकों एक नजर देखकर अपना जी भर लेगा। नये कपड़ों का सपना सजाए मन में वह उसकी कल्पना ही कर सकता है। गरीब व्यक्ति जब दिन भर काम कर अपना पेट पालता है तो वह दीवाली की इस चकाचैंद को कैसे पूरा कर पाएग ? अब आप भी यह समझ गए होगें की दीपावी किस का त्यौहार है।

मध्यप्रदेष में स्थि गंजबासौदा निवासी एक परिवार ने आर्थिक तंगी के परेशान होकर जहर खा लिया। परिवार में छः सदस्य थे सभी की मौके पर ही मौत हो गई। ऐसे ही कई उदाहरण है जिसमें लोग आर्थिक तंगी के चलते अपने परिवार का पालन-पोषण नहीं कर पाते हैं और उनके सामने आखिरी रास्ता मौत का बचता है। इस आर्थिक मंदी के चते एक आम आदमी दीवाली कैसे मनाऐगा ? लोग कहते है कि लक्ष्मी की पूजा करने से घर में धन की बरसात होती है। पर गरीब को तो अपने पेट पालने के लाले पढ़े हैं ऐसे में वह क्या पूजा पाठ करेगा? दीवाली तो मानो धन का त्यौहार है। जिसके पास धन उसी की दीवाली। जिसके पास धन नहीं उसका दीवाला।

Saturday, October 25, 2008

वेब पत्रकार संघर्ष समिति का गठन : सुशील प्रकरण

एचटी मीडिया में शीर्ष पदों पर बैठे कुछ मठाधीशों के इशारे पर वेब पत्रकार सुशील कुमार सिंह को फर्जी मुकदमें में फंसाने और पुलिस द्वारा परेशान किए जाने के खिलाफ वेब मीडिया से जुड़े लोगों ने दिल्ली में एक आपात बैठक की। इस बैठक में हिंदी के कई वेब संपादक-संचालक, वेब पत्रकार, ब्लाग माडरेटर और सोशल-पोलिटिकिल एक्टीविस्ट मौजूद थे। अध्यक्षता मशहूर पत्रकार और डेटलाइन इंडिया के संपादक आलोक तोमर ने की। संचालन विस्फोट डाट काम के संपादक संजय तिवारी ने किया। बैठक के अंत में सर्वसम्मति से तीन सूत्रीय प्रस्ताव पारित किया गया। पहले प्रस्ताव में एचटी मीडिया के कुछ लोगों और पुलिस की मिलीभगत से वरिष्ठ पत्रकार सुशील को इरादतन परेशान करने के खिलाफ आंदोलन के लिए वेब पत्रकार संघर्ष समिति का गठन किया गया।

इस समिति का संयोजक मशहूर पत्रकार आलोक तोमर को बनाया गया। समिति के सदस्यों में बिच्छू डाट काम के संपादक अवधेश बजाज, प्रभासाक्षी डाट काम के समूह संपादक बालेंदु दाधीच, गुजरात ग्लोबल डाट काम के संपादक योगेश शर्मा, तीसरा स्वाधीनता आंदोलन के राष्ट्रीय संगठक गोपाल राय, विस्फोट डाट काम के संपादक संजय तिवारी, लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार अंबरीश कुमार, मीडिया खबर डाट काम के संपादक पुष्कर पुष्प, भड़ास4मीडिया डाट काम के संपादक यशवंत सिंह शामिल हैं। यह समिति एचटी मीडिया और पुलिस के सांठगांठ से सुशील कुमार सिंह को परेशान किए जाने के खिलाफ संघर्ष करेगी। समिति ने संघर्ष के लिए हर तरह का विकल्प खुला रखा है।

दूसरे प्रस्ताव में कहा गया है कि वेब पत्रकार सुशील कुमार सिंह को परेशान करने के खिलाफ संघर्ष समिति का प्रतिनिधिमंडल अपनी बात ज्ञापन के जरिए एचटी मीडिया समूह चेयरपर्सन शोभना भरतिया तक पहुंचाएगा। शोभना भरतिया के यहां से अगर न्याय नहीं मिलता है तो दूसरे चरण में प्रतिनिधिमंडल गृहमंत्री शिवराज पाटिल और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती से मिलकर पूरे प्रकरण से अवगत कराते हुए वरिष्ठ पत्रकार को फंसाने की साजिश का भंडाफोड़ करेगा। तीसरे प्रस्ताव में कहा गया है कि सभी पत्रकार संगठनों से इस मामले में हस्तक्षेप करने के लिए संपर्क किया जाएगा और एचटी मीडिया में शीर्ष पदों पर बैठे कुछ मठाधीशों के खिलाफ सीधी कार्यवाही की जाएगी।

बैठक में प्रभासाक्षी डाट काम के समूह संपादक बालेन्दु दाधीच का मानना था कि मीडिया संस्थानों में डेडलाइन के दबाव में संपादकीय गलतियां होना एक आम बात है। उन्हें प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाए जाने की जरूरत नहीं है। बीबीसी, सीएनएन और ब्लूमबर्ग जैसे संस्थानों में भी हाल ही में बड़ी गलतियां हुई हैं। यदि किसी ब्लॉग या वेबसाइट पर उन्हें उजागर किया जाता है तो उसे स्पोर्ट्समैन स्पिरिट के साथ लिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि संबंधित वेब मीडिया संस्थान के पास अपनी खबर को प्रकाशित करने का पुख्ता आधार है और समाचार के प्रकाशन के पीछे कोई दुराग्रह नहीं है तो इसमें पुलिस के हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश नहीं है। उन्होंने संबंधित प्रकाशन संस्थान से इस मामले को तूल न देने और अभिव्यक्ति के अधिकार का सम्मान करने की अपील की।

भड़ास4मीडिया डाट काम के संपादक यशवंत सिंह ने कहा कि अब समय आ गया है जब वेब माध्यमों से जुड़े लोग अपना एक संगठन बनाएं। तभी इस तरह के अलोकतांत्रिक हमलों का मुकाबला किया जा सकता है। यह किसी सुशील कुमार का मामला नहीं बल्कि यह मीडिया की आजादी पर मीडिया मठाधीशों द्वारा किए गए हमले का मामला है। ये हमले भविष्य में और बढ़ेंगे।विस्फोट डाट काम के संपादक संजय तिवारी ने कहा- ''पहली बार वेब मीडिया प्रिंट और इलेक्ट्रानिक दोनों मीडिया माध्यमों पर आलोचक की भूमिका में काम कर रहा है। इसके दूरगामी और सार्थक परिणाम निकलेंगे। इस आलोचना को स्वीकार करने की बजाय वेब माध्यमों पर इस तरह से हमला बोलना मीडिया समूहों की कुत्सित मानसिकता को उजागर करता है। उनका यह दावा भी झूठ हो जाता है कि वे अपनी आलोचना सुनने के लिए तैयार हैं।''लखनऊ से फोन पर वरिष्ठ पत्रकार अंबरीश कुमार ने कहा कि उत्तर प्रदेश में कई पत्रकार पुलिस के निशाने पर आ चुके हैं। लखीमपुर में पत्रकार समीउद्दीन नीलू के खिलाफ तत्कालीन एसपी ने न सिर्फ फर्जी मामला दर्ज कराया बल्कि वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के तहत उसे गिरफ्तार भी करवा दिया। इस मुद्दे को लेकर मानवाधिकार आयोग ने उत्तर प्रदेश पुलिस को आड़े हाथों लिया था। इसके अलावा मुजफ्फरनगर में वरिष्ठ पत्रकार मेहरूद्दीन खान भी साजिश के चलते जेल भेज दिए गए थे। यह मामला जब संसद में उठा तो शासन-प्रशासन की नींद खुली। वेबसाइट के गपशप जैसे कालम को लेकर अब सुशील कुमार सिंह के खिलाफ शिकायत दर्ज कराना दुर्भाग्यपूर्ण है। यह बात अलग है कि पूरे मामले में किसी का भी कहीं जिक्र नहीं किया गया है।बिच्छू डाट के संपादक अवधेश बजाज ने भोपाल से और गुजरात ग्लोबल डाट काम के संपादक योगेश शर्मा ने अहमदाबाद से फोन पर मीटिंग में लिए गए फैसलों पर सहमति जताई। इन दोनों वरिष्ठ पत्रकारों ने सुशील कुमार सिंह को फंसाने की साजिश की निंदा की और इस साजिश को रचने वालों को बेनकाब करने की मांग की।बैठक के अंत में मशहूर पत्रकार और डेटलाइन इंडिया के संपादक आलोक तोमर ने अपने अध्यक्षीय संबोधन में कहा कि सुशील कुमार सिंह को परेशान करके वेब माध्यमों से जुड़े पत्रकारों को आतंकित करने की साजिश सफल नहीं होने दी जाएगी। इस लड़ाई को अंत तक लड़ा जाएगा। जो लोग साजिशें कर रहे हैं, उनके चेहरे पर पड़े नकाब को हटाने का काम और तेज किया जाएगा क्योंकि उन्हें ये लगता है कि वे पुलिस और सत्ता के सहारे सच कहने वाले पत्रकारों को धमका लेंगे तो उनकी बड़ी भूल है। हर दौर में सच कहने वाले परेशान किए जाते रहे हैं और आज दुर्भाग्य से सच कहने वालों का गला मीडिया से जुड़े लोग ही दबोच रहे हैं। ये वो लोग हैं जो मीडिया में रहते हुए बजाय पत्रकारीय नैतिकता को मानने के, पत्रकारिता के नाम पर कई तरह के धंधे कर रहे हैं। ऐसे धंधेबाजों को अपनी हकीकत का खुलासा होने का डर सता रहा है। पर उन्हें यह नहीं पता कि वे कलम को रोकने की जितनी भी कोशिशें करेंगे, कलम में स्याही उतनी ही ज्यादा बढ़ती जाएगी। सुशील कुमार प्रकरण के बहाने वेब माध्यमों के पत्रकारों में एकजुटता के लिए आई चेतना को सकारात्मक बताते हुए आलोक तोमर ने इस मुहिम को आगे बढ़ाने पर जोर दिया।बैठक में हिंदी ब्लागों के कई संचालक और मीडिया में कार्यरत पत्रकार साथी मौजूद थे।
((इस पोस्ट को कापी करके आप अपने-अपने ब्लागों-वेबसाइटों पर प्रकाशित करें ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक यह संदेश पहुंचाया जा सके और वेब माध्यम के जरिए सुशील कुमार की लड़ाई को विस्तार दिया जा सके।))

Friday, October 24, 2008

नेताओं के भाषण में मानव मुक्ति

मनोज कुमार राठौर
नेताओं के भाषण मानव मुक्ति का गौण द्वार है। कर्म, धर्म, पाप, भ्रष्टाचार, बेईमानी और मोक्ष नेताओं के भाषण में समाहित रहते हैं। एक नेता जब अपने भाषण की उद्घोषणा करता है तो वह अपनी पार्टी का विश्वास जनता के प्रति जताता है। लगता है कि नेताजी ने जनता के लिए कोई भविष्यवाणी कर दी हो। नेताजी कहते है कि हमारी पार्टी यदि सत्ता में आती है तो हम इस क्षेत्र का नक्शा ही बदल देगें। सम्मानिय नेताजी यह नहीं जानते हैं कि पहले अपने विचारों के नक्शा को बदले बाद में क्षेत्र की बात करे। बेरोजगारी, गरीबी और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने में इन महाशय का महत्वपूर्ण योगदान है। विकास के प्रति नेताओं की भूमिका नकारात्मक हैं, भाई साहब सकारात्मता की ओर सोचते ही नहीं। नेताओं की पीढ़ी धीरे-धीरे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ती जा रही हैं। आज के युग में जितने भी घोटले या गैर कानूनी काम होते हैं उनके पीछे नेताओं का हाथ जरूर रहता है। मतलब यह हुआ कि नेताओं की दम पर उनके साथी हवाई उड़ाने भरते हैं। देष के सभी नेता अपने मुंह पर भ्रष्टाचार का नाकाप लगाकर देष के वातावरण को दूषित कर रहे हैं। किसी ने सही कहा है कि सफेद पोशाक के पीछे काले शैतान का वास होता है। भारत देश के सुधारकों की अग्निपरिक्षा ली जाए तो वह भी हमाम में नगें खडे़े दिखाई देगें। नेताओं के भाषणवाद से ऐसा लगता है कि वह मानवता को मुक्ति धाम तक एक न एक दिन अवश्य पहुंचा देगें।
नेताओं के भाषण में क्या है?
यह सबको नज़र आता है।

Monday, October 20, 2008

चुनावों का शंखनाद

नेताओं की अग्निपरीक्षा का समय आ गया है। चुनावों की इस घमासान लड़ाई में नेताओं की क्या प्रतिक्रिया रहती है, इसी को अपनी कविता के माध्यम से लिखने की कोशिश कर रहा हूँ।
मनोज कुमार राठौर



चुनावों का शंखनाद
नेताओं के आश्वासन
पार्टियों के घोषणा पत्र
सभी हैं दिखावे
हमें अपना काम करने दो।



घोषणाओं का अंबार
कार्य के प्रति कर्मठ
सत्ता बनेगी तो काम करेगें
सभी हैं दिखावे
हमें अपना काम करने दो।


रैली और पद यात्रा
झुग्गी-बस्ती का दौरा
जनता के छूते पैर
सभी हैं दिखावे
हमें अपना काम करने दो।


जातिगत वोटों को बढ़ावा
भाषण में सामप्रदायिकता
सरकारी नौकरी का लालच
सभी हैं दिखावे
हमें अपना काम करने दो।


जेब गरम करने का तरिका
भ्रष्टाचार के तुम पुतले
आंखों से काजल मत चुराओं
सभी है दिखावे
हमें अपना काम करने दो


मौसम आते और जाते हैं
जो बोलो वह करके दिखाओ
झुठ मत बोलो भाई
सभी हैं दिखावे
हमें अपना काम करने दो।

Friday, October 17, 2008

दैनिक जागरण की लापरवाही

मनोज कुमार राठौर
विश्व का सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला अखबार क्या कोई गलती कर सकता है? नहीं, यही सबका जबाव होगा। दैनिक जागरण के 14 अक्टूबर के अंक में पेज नम्बर 3 (भोपाल जागरण) में परीक्षा परिणाम घोषित हैडिंग से एक सिंगल काॅलम खबर छपी। इसमें लिखा था कि बरकतउल्ला विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित बीएससी अंतिम वर्ष 2007-08 की पूरक परीक्षा के परिणाम सोमवार को घोषि कर दिए गए। परीक्षा परिणाम की जानकारी विवि के नोटिस बोर्ड अथवा वेबसाइट डब्लूडब्लूडब्लू डाट बीयूभोपाल डाट एनआईसी डाट इन पर देखी जा सकती है। जब बीएससी के पूरक छात्र सोनी ने यह खबर पढ़ी तो वह तुरंत इंटरनेट पर परीक्षा परिणाम खंगालने लगा, पर उसके हाथ निराशा ही लगी क्योकि इंटरनेट पर परीक्षा परिणाम होता तो मिलता। इसके बाद वह सीधे बरकतउल्ला विश्वविद्यालय गया, लेकिन वहां भी कोई लिस्ट नहीं लगी थी। उसने जब पूछताछ काउटंर पर इसकी जानकारी ली तो पता चला कि दैनिक जागरण ने बीसीए के स्थान पर बीएससी छाप दिया। हालांकि छात्रों ने बताया कि यही खबर दैनिक भास्कर में सही छपी।
दैनिक जागरण की इस खबर का पाठक वर्ग पर क्या प्रभाव पड़ा होगा? यह मान लिया जाए कि उनसे इस खबर में छोटी सी त्रुटि हुई है, लेकिन दैनिक जागरण का इस पर ध्यान केन्द्रित नहीं हुआ और उन्होंने अपने अगले अंक 15 अक्टूबर में इस संदर्भ में कुछ भी नहीं छापा। दैनिक जागरण शायद यह भूल गया है कि यदि किसी अखबार से खबर में कोई गलती होती है तो वह अपने दूसरे अंक में प्रतिक्रिया जरूर देता है, लेकिन दैनिक जागरण ने इस आवष्यक नहीं समझा। माना यह दैनिक जागरण के पेज इंचार्ज की गलती है पर अखबार के सम्पूर्ण पेज की जिम्मेदारी तो संपादक महोदय जी की होती है। उन्होंने भी इस खबर को छोटी समझ कर हल्के में जाने दिया। मुझे लगता है कि दैनिक जागरण के किसी भी कर्मचारी ने इस छोटी सी संदेषात्मक खबर पर ध्यान नहीं दिया। दैनिक जागरण चाहता तो अपने अगले अंक 15 अक्टूबर को इस गलत खबर पर भूल-चुक या फिर इसकी त्रुटि को सही करके दोबारा खबर छापता। जागरण की नीति क्या है? यह तो इस खबर से पता चलता है। गलती छोटी हो या फिर बड़ी, गलती तो गलती होती है।
अखबारों की दुनिया में दैनिक जागरण का अपनी अलग पहचान है लेकिन यह लापरवाही तो उसकी आंतरिक संरचना की पोल खोलती है।

Thursday, October 16, 2008

देशहित में है चुनाव का एक साथ होना




मनोज कुमार राठौर
हमारे देश में चुनावी बजट का किसको ख्याल है? चुनाव आते ही सभी राजनीतिक दल अपने-अपने राग अलापने लगते हंै। लोकतंत्र की इस अर्थव्यवस्था में विधानसभा, लोकसभा चुनाव और अन्य छुट-पुट चुनाव होते रहते हैं। सभी चुनाव अलग-अलग समय अवधि में कराए जाते हैं जिसमें समय और धन की बर्बादी होती है। जनता भी बार-बार चुनावों में भाग लेने मे कतराती हैं इसीलिए हर साल वोटिंग का प्रतिशत कम होता जा रहा है। चुनाव आयोग को ऐसी व्यवस्था करना चाहिए जिसमें सभी चुनाव एक ही समय में हो सके। ऐसा करने से देश को आर्थिक रूप से सुदृढ़ता प्राप्त होगी। पिछले लोकसभा चुनाव में 1350 करोड़ रुपए खर्च हुए थे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि जब तीन बार चुनाव होते हैं तो उसमें 4350 करोड़ रुपए की खर्चा आता है। चुनाव आयोग यह 4350 करोड़ रुपए बचाकर इसे देश के विकास कार्यों में लगाया जा सकता है। चुनाव आयोग की आंखों पर यह काली पट्टी कब तक बंदी रहेगी?

चुनाव आयोग को 45 वर्ष पुरानी रणनीति अपनाना चाहिए। 45 वर्ष पहले तक देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ होते थे। चुनाव हुए, सरकारें बनीं और फिर पांच साल जनहित के कामों पर ध्यान। लेकिन आपातकाल के बाद बदली राजनीतिक परिस्थितियों ने इस परंपरा को इतिहास बना दिया और 1977 के बाद से तो राजनीतिक प्रतिशोध के चलते राज्य विधानसभाओं को भंग करने की होड़ और सत्ता के पायदान तक पहंुचने के लए शुरू हुए दलबदल के खेल ने जल्दी-जल्दी चुनाव का ऐसा रास्ता खोला जो बंद होने का नाम ही नहीं ले रहा है। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने पिछले महीने एक न्यूज चैनल के समारोह में कहा था कि सभी संवैधानिक संस्थाओं के चुनाव एक ही दिन में कराए जाने चाहिए। हालांकि सभी तरह के चुनाव एक ही दिन में कराने का विचार अव्यावहारिक लगता है, लेकिन यदि सभी राजनीतिक दल इस पर राजी हो जाऐ, तो यह सपना पूरा हो सकता है। यदि हम हर समय चुनाव में ही व्यस्त रहे तो विकास का लक्ष्य कैसे हासिल किया जा सकता है, यह सोचने की बात है। एपीजे अब्दुल कलाम भी चाहते है कि चुनावों को एक साथ कराना चाहिए जो विकास के लिए अति आवष्यक है। हमारे देश के पूर्व उप राष्ट्रपति भैंरोसिंह शेखावत ने कहा कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव पांच साल बाद एक निष्चित अवधि में एक साथ कराए जाने चाहिए। यदि किसी सरकार को अविष्वास प्रस्ताव के माध्यम से अपदस्थ करने की कोशिस की जाए तो ऐसी स्थिति में पहले ही वैकल्पिक सरकार गठन की व्यवस्था का प्रावधान भी होना चाहिए। अपरिहार्य स्थिति में राज्य सरकार को भंग करना भी पड़े तो ऐसे चुनाव विधानसभा की शेष अवधि के लिए ही कराए जाने चाहिए। शेखावत ने भी स्पष्ट कहा है चुनाव को एक निष्चित अवधि में कराए जाना चाहिए और चुनाव में वैकल्पिक प्रावधान भी होना चाहिए। पूर्व चुनाव आयुक्त डाॅ। जीवीहजी कृष्णामूर्ति ने अजीत मैदोला को बताया कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होने चाहिए। लेकिन हमारे देश में संविधान सर्वोपरि है और उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। इसके चलते लोकसभा और विधानसभा का चुनाव एक साथ कराया जाना संभव नहीं हो पा रहा है। उन्होंने कहा कि इस समय राजस्थान समेत छह राज्यों के विधानसभा चुनाव होने है ओर उस के तुरंत बाद लोकसभा चुनाव। अच्छा हो कि छह राज्यों के चुनाव और लोकसभा चुनाव एक साथ कराए जाएं। चुनाव एक साथ कराने से कई फायदे हैं। एक तो आम आदमी की चुनाव के प्रति रूचि बनी रहती है,दूसरा खर्चा कम होता है ओर सभी राजनीतिक दलों को भी लाभ होता है। उन्होने कहा कि 1952 से लेकर 1962 तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ-साथ होते थे और एक दिन में ही पूरे देश में चुनाव सम्पन्न हो जाते थे। इससे आम आदमी तो वोट डालने जाता ही था, सरकारी कर्मचारियों को भी राहत मिलती थी। अब विधानसभा ओर लोकसभा के चुनाव एक साथ हो सकते हैं। मेरा सुझाव यह है कि बड़े राज्यों में तीन चरणों में, मध्यम राज्यों मे दो चरणों में और छोटे राज्यों में एक चरण में चुनाव हो सकते हैं। चरणों में चुनाव कराने के पीछे मकसद एक ही होता है कि पर्याप्त सुरक्षा बल उपलब्ध हो जाते है और चुनाव निष्पक्ष और साफ-सुथरे ढंग से कराए जाते हैं।

लोकसभा, विधानसभाओं और स्थानीय पालिका-पंचायतों के चुनाव अलग-अलग होने से जहां चुनाव खर्च सामान्य से तीन गुना तक बढ़ जाता है, वही अलग-अलग चुनाव होने से आचार संहिता के चलते सामान्य कामकाज प्रभावित होते है। पिछले लोकसभा चुनाव में लगभग 1350 करोड़ रुपए खर्च हुए थे। राज्य विधानसभाओं व सभी राज्यों में पालिका-पंचायत के खर्चे भी लगभग 30000 करोड़ रुपए बैठते है। यानी एक साथ चुनाव होने पर जो खर्च 1350 करोड़ ही हो वह तीन बार अलग-अलग चुनाव होने पर लगभग4350 करोड़ आता है। चुनाव की एक धारा की बात को चुनाव आयोग को अलापना चाहिए। चुनाव के एक साथ करना देषहित में है। भारत देश शनैहशनैह विकास कर रहा है, ऐसे में यह पैसा उसके विकास कार्यों में लगाया जाए तो देश की विकास गति की गति में तीव्रता लाई जा सकती है।

Wednesday, October 15, 2008

स्वतंत्र भारत का असली चेहरा

मनोज कुमार राठौर
स्वतंत्रता के इन वर्षों में भारत ने क्या खोया, क्या पाया। इसको आज भारत के दर्पण में साफ देखा जा सकता है। सन् 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के शंख नाद की गूंज अभी तक सुनाई देती है, जो भारतवासियो को इस ओर इसारा करती है कि आज भी देश पूरी तरह से स्वतंत्र नही हो पाया है। भारत भ्रष्ट गुलामी की जिंदगी बसर कर रहा है। आजादी में लड़ने वाले दिवानों ने क्या इस भारत की कल्पना की थी जिस ओर भारत अग्रसर है? देश के कानून बनाने वाले ही इस कानून की मर्यादा को भंग कर रहे हैं।

मां के इन लालो ने अपने खून से आजाद तिरंगे को सिंचा है, तब जाकर हम इस आजाद भारत की कल्पना कर पाए हैं। पर इस भारत में उन राक्षकों का भी ढेरा है जो जिस थाली में खाते है उसी में छेद करते हैंै। आजादी के बाद हुए जीप घोटाला, बैंक घोटाला, चीनी घोटाला, जमीन घोटाला, खाद्यान्न घोटाला, डेयरी घोटाला, चारा घोटाला, शेयर घोटाला और दवा घोटाला जैसे न जाने कितने घोटाले हो चुके हैं जो गरीब के खून पसीने की कमाई में से किये गए हैं। जब भी इस तरह के घोटाले होते है तो कोई डकार तक नहीं लेता। क्या आजाद होने का यह मतलब है? तो फिर देश अंग्रेजों के हाथ में ही ठीक था। भारत के संविधान निर्माताओ के द्वारा बनाए गए नियमांे का पालन उनके अंगरक्षक द्वारा किया जाना था, पर ऐसे संभव नही पाया और वही अंगरक्षक उन नियमों की धज्जियां उड़ाते दिखते हैं। मध्यप्रदेश की विधानसभा में अध्यक्ष की आसंदी पर जो काले दुपट्टे फेकें गए थे उससे ऐसा लगता है कि नेताओं को यह मालूम नही था कि वह उस पवित्र मंदिर में खडे़ है जिसकी पूजा पूूरा देश करता है। इस घटना के बाद हुए नोट कांड ने तो आजादी के सपनें को चक्माचूर कर दिया। संसद में हुए नोट कांड ने तो संसद की मर्यादा को ताख पर रख दिया। जिस तरह से नोटों की गड्डी संसद में उछाली जा रही थी इससे ऐसा लग रहा था कि वहां पर कोई नाच गाना हो रहा है। नोटों की इस नुमाईश ने आजाद भारत को शर्मशार के साथ उस आजाद भारत कल्पना पर सवालियां निशान लगा दिया है।

एक समय ऐसा था कि देश के लिए लोग मर मिटने को तैयार रहते थे चाहे वह सुखदेव हो या फिर भक्तसिंह। देशभर में इन देशभक्तों चर्चे थे, जिन्होंने मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना बलिदान दिया। स्वतंत्रता के समय इन देशभक्तों को राष्ट्रीय विद्रोह का दर्जा दिया गया लेकिन कं्रातिकारियों ने यह विद्रोह जारी रखा। काल मार्कस् ने अगे्रंजों द्वारा किए गए अत्याचारों और क्रांतिकारियों के अभियानों पर न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून में 28 जुलाई 1857 कें अंक में लिखा था कि भारतीयों उथल-पुथल कोई सैनिका कार्यवाही नहीं है, बल्कि एक राष्ट्रीय विद्रोह है। उन्होंने दावा किया कि धीरे-धीरे ऐसे तथ्य सामने आते जायेंगें जिनसे स्वयं जाॅन बुल को विष्वास हो जाएगा कि जिसे वह सिपाही विद्रोह समझते हैं वह वास्तव में एक राष्ट्रीय विद्रोह है। मार्कस् ने विद्रोह में विभिन्न समुदायों की एकता का उल्लेख करते हुये 30 जून 1857 को लिखा कि मुसलमान और हिन्दू अपने समान मालिकों के खिलाफ एक हो गये। भारत देश को स्वतंत्र कराने में क्रांतिकारियों ने जिन मुसिबतों का सामना किया है जो आज भारत देश के लिए मिशाल बन गया है। अग्रेंजों की जंजीरों से भारत को आजाद कराने के बाद आजादी की इस मशाल को हमारी सीमा पर तैनात जवानों ने थामा। देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी इन्होंने अपने कधें पर ले ली। इस जिम्मेदारी को पूरा करने में कई सैनिकों ने अपना बलिदान भी दे दिया। इन बलिदानों को लोग भूल रहे है, बस उनकी याद 15 अगस्त को कर ली जाती है और बाकी दिन उनके स्वतंत्र भारत को ,फिर से गुलामी की जंजीरों में जकड़ दिया जाता है। हमारे देश में ही यह स्थिति है कि एस.ई.जेड. का विरोध करने वाले ग्रामीणों पर फायरिंग की गई। सत्य बात तो यह है कि उस घटना के पीछे कोई भी व्यक्ति दोसी नहीं पाया गया। जिस तरह इन श्रमिकों पर लाठियां और फायरिंग की गई इस घटना से जलियांवाला बाग की यादें ताजा कर दी। हमारे देश का दुर्भाग्य यह है कि जहां कानून के रक्षक ही भक्षक बन जाएगें, तो इस देश की रक्षा कौन करेगा?

आज धर्म के नाम पर होते जातिगत दंगे, जो कई बेकसूर लोगों की तबाही के कारण बनते हैं। बाबरी मस्जिद कांड हो या फिर राम मंदिर विवाद, जिस पर कई समुदाय आमने सामने थे। इस आजाद भारत में जहां सबका मालिक है तो फिर ऐसा क्यो किया जाता है। यह सब तो उन नेताओं की करतूत होती है जो वोट पाने के लिए यह शर्मशार खेल खेलते हैं। जिस देश में ऐसे नेताओं का वास होगा वह तो आजाद कभी नहीं हो सकता। गंगादास आश्रम के 367 साधुओं ने वीरंागना लक्ष्मीबाई को बचाने के लिए फिरंगी सेना से लड़ते-लड़ते जीवन बलिदान दे दिया था और सैकड़ों घायल हुये व अंग्रेजी सेना के दमन का शिकार कर होने बावजूद भी इन वीर साधुओं ने महारानी लक्ष्मीबाई का शव भी अग्रंेजों के हाथ नहीं आने दिया और बड़ी शाला की घास की गंजी में आग लगा कर लक्ष्मीबाई को अग्नि संस्कार कर दिया। इन साधुओं का बलिदान इतिहास बन गया है जिन्होंने अपनी मिट्टी के साथ बेईमानी नही की। जो न धर्म को को लेकर लड़े। बस उनका एक लक्ष्य था भारत देश को आजाद कराना। जिसके प्रति झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की रक्षा के लिए अपना बलिदान तक दे दिया। फिर भारत जैसी पवित्र भूमि पर जातिगत विवाद क्यो गहराता जा रहा है।

15 अगस्त के दिन इन शहिदों को सम्मानपूर्वक श्रद्धाजंली दी जाती है और इसी दौरान नेताओं द्वारा भाषण भी दिये जाते है जो देश भक्ति से ओतप्रोत होते हैं। पर नेता अपना कर्तव्य भूल जाते है कि देष की स्वतं़़़त्रता को भी संभाल के रखना है। देश की हर दिशा गुलामी की जंजीरों से बंदी है जिसमें जंजीरे भी हमारी है और देश भी हमारा। आतंकवाद, खूस खोरी, बेईमानी, भ्रष्टाचार और अपराध जो देष के लिए समस्या है। वही देश को गुलाम कर रहे हैं।

अब छोड़ो यह भ्रष्टाचारी।
देश की रक्षा तुम्हारी जिम्मेदारी ।।

Tuesday, October 14, 2008

आजादी थी तुम बिन अधुरी

मनोज कुमार राठौर
भारत की आजादी के इतिहास में जिन शूरवीरों ने अंग्रेजों को लोहे के चने चबाने के लिए मजबूर किया था, जिन्होंने भारत को गुलामी की बेडियों से छुडवाया और स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया। जिन शूरवीरों पर भारत जन्मभूमि को गर्व है, उनमें से एक हैं-भगतसिंह। इस महान देशभक्त का जन्म 27 सितम्बर 1907 को पंजाब के जिला लायलपुर में बंगा गांव (पाकिस्तान) में हुआ। यह एक विचित्र संयोग ही था कि जिस दिन इनका का जन्म हुआ उसी दिन उनके पापा और चाचा को जेल से रिहा किया गया था। इस शुभ अवसर पर उनके घर में खुशी की लहर दौड़ उठी और भगत सिंह की दादी ने बच्चे का नाम भागा रखा। भागा अच्छे भाग वाले को कहते हैं इसीलिए इनका का नाम भारत में भगतसिंह के नाम से प्रसिद्ध हुआ। भारत को स्वतंत्रता दिलावाने में भगतसिंह की भूमिका महत्वपूर्ण थी। इस यौद्धा के बिना आजादी अधुरी थी। आजादी की इस हवा को भगतसिंह ने नई दिशा प्रदान की थी।

भगतसिंह के मन में बचपन से ही देशभक्ति की भावना थी। अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के पश्चात उन्होंने सन् 1916-1917 में लाहौर के डीएवी स्कूल में प्रवेश लिया। वहां उनका संपर्क लाला लालजपतराय और अम्बा प्रसाद जैसे कर्मठ देशभक्तों से हुआ जिनसे उन्होंने काफी प्रेरणा भी मिली। सन् 1919 में रोलेट एक्ट के विरोध में संपूर्ण भारत वर्ष में प्रदर्शन हो रहे थे और इसी वर्ष 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग काण्ड हुआ। इस घटना के समाचार सुनकर भक्तसिंह लाहौर से अमृतसर चले गए और वहां का मंजर देखकर उनका खून खोल उठा। रक्त से भीगी मिट्टी उस मंजर को खुद बयान कर रही थी। भक्तसिंह ने उसी जगह खड़े होकर प्रतिज्ञा ली कि इस अंग्रेज शासन को में जड़ से उखाड़ फेकुगां। भक्तसिंह की इस प्रतिज्ञा के बाद से एक ही लक्ष्य बन गया था भारत को आजाद कराना। बस यह चिंगारी उनके दिल में जलती गई। सन् 1920 के महात्मा गांधी के असहयोग से प्रभावित होकर 1921 में भगतसिंह ने स्कूल छोड़ दिया। दिल में देशभक्ति का जज्बा लिए सन् 1924 में कानपुर के दैनिक पत्र प्रताप के संचालक गणेशकर विद्यार्थी से भेंट की। इसी भेट के कारण वह बटुकेशवर दत्त और चंद्रशेखर आजाद के संपर्क में आए। इससे उन्हें अपने लक्ष्य तक पहुचने का रास्ता मिल गया और वह हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य बन गए। अब भगतसिंह पूर्ण रूप से कं्रातिकारी कार्याे तथा देश सेवाओं के लिए समर्पित हो गए थे। सन् 1926 में अपने तत्वाधान में नौजवान भारत सभा का गठन किया जिसमें सभी धर्मों के लोगों को उन्होंने सौगंध दिलाई की छुआ-छुूत और जातिवाद से बढ़कर देश हितों को मानेगें। ब्रिटिश सरकार ने इस सभा की खबर सूनी तो उन्होंने दांतो तले ऊगंलियां दबा ली।

30 अक्टूबर, 1928 का वह दृष्य बड़ा खौफनाक था जब साइन कमीशन लाहौर पहंुचा और इसी के विरोध में लाला लाजपत राय के नेतृत्व में शातिपूर्ण तरीके से एक जुलूस निकाला गया। इस जुलूस को रोकने के लिए ब्रिटिश सरकार के सहायक अधीक्षक साण्डर्स ने प्रदर्शनकारीयों पर लाठी चार्ज की। लाला लाजपत राय पर भी अनगिनत लाठियां बरसाई गई जिससे वह लहूलुहान हो गए। यह सब दृष्य भगतसिंह अपनी आंखों से देख रहे थे। उनकी आंखों के सामने ही लाला लाजपत राय परमात्मा में विलिन हो गए। यह सब कुछ देखकर उनका उनके दिल में बदले की भावना पैदा हुई और इस बदले को पूरा करने के लिए साण्डर्स को मारने का षड़यंत्र रचा गया। साण्डर्स को मौत के घाट उतार दिया गया। साण्डर्स की मौत के बाद गौरो की सरकार बौखला गई। ब्रिटिश सरकार ने शीघ्र ही भगतसिंह और उनके साथियों को पकड़ने के आदेश जारी किये। इस घटना के बाद भगतसिंह को लोकप्रियता प्राप्त हुई और लोगों की जुबान पर भक्तसिंह का नाम गूंजने लगा। गौरे से बचने के लिए उन्होंने अपने बाल कटवाकर, पेंट शर्ट पहनकर और सिर पर हैट लगाकर वेश बदला और सभी की आंखों में धूल झोंकर कलकत्ता पहंुचे। कलकत्ता में कुछ समय बिताने के उपरान्त आगरा गए। इसी दौरान हिन्दुस्तान समाजवादी गणतंत्र संघ की केन्द्रीय कार्यकारिणी की एक सभा हुई, जिसमें पब्लिक सेपफ्टी बिल तथा डिस्प्यूट्स बिल पर चर्चा हुई। इनका विरोध करने के लिए भक्तसिंह ने केन्द्रीय असेम्बली में बम फंेकने का प्रस्ताव रखा। साथ ही उन्होंने कहा कि इस से बम से किसी भी व्यक्ति को हानी न हो। इसके बाद हम स्वयं की गिरफ्तारी देगें। भगतसिंह के इस प्रस्ताव से चंद्रशेखर आजाद असंतुष्ट थे पर भगतसिंह की जिद के आगे उनकी एक न चली और विवश होकर उन्हें प्रस्ताव स्वीकार करना पड़ा। 8 अप्रैल,1929 को भक्तसिंह और बटुकेषवर निष्चित समय पर असेम्बली पहंुचे। जैसे असेम्बली में बिल के पक्ष में निर्णय देने के लिए अध्यक्ष उठा, भगतसिंह ने एक बम फेंका, फिर दूसरा। दोनों ने इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाते हुए अपनी गिरफ्तारी दी। इस घटना के बाद सुखदेव, जयगोपाल तथा किशोरीलाल को भी गिरफ्तार कर लिया गया। भगतसिंह अच्छी तरह से जानते थे कि अंग्रेज सरकार उनके साथ कैसा व्यवहार करेगी। उन्होंने अपने लिए वकील तक नहीं किया क्योंकि उनकों अपनी आवाज जनता तक खुद पहंुचानी थी। 7 मई 1929 को भगतसिंह व बटुकेशवर के विरूद्ध न्याय का अंधा नाटक शुरू हुआ। भगत को पता था कि न्याय उनके पक्ष में नहीं होगा। अदालती कार्यवाही चलती गई और इसके पश्चात 7 अक्टुबर 1930 को 68 पृष्ठीय निर्णय दिया, जिसमें भगतसिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फंासी की सजा सुनाई गई। इस निर्णय के विरूद्ध नवम्बर 1930 में प्रिवी परिषद में अपील दी गई, परन्तु वह भी खारिज हो गई। देष और विदेश में भगतसिंह की सजा को न्याय के विरूद्ध ठहराया। पर अंग्रेजों के आगे किसी की एक न चली। भगतसिंह द्वारा लगाई की चिंगारी अब आग बन गई थी और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ पूरा देश एक साथ खड़ा हो गया। जेल में रहते हुए उन्होंने आजादी की लड़ाई बड़ी चतुराई से लड़ी। ब्रिटिश शासन की कूट नीतियों का उजागर किया गया।

जेल में रहते हुए भगत सिंह ने दि डोर टू डेथ (मौत का दरवाजा), आइडियल आॅफ सोशोलिज्म (समाजवाद का आदर्ष ), स्वाधीनता की लडाई में पंजाब का पहला उभार आदि पुस्तकें लिखी। इस देशभक्त में इतना जुनून था कि वह कैदियों में जोश भरने के लिए शहीद राम प्रसाद बिस्मिल की यह पंक्तियां गाने लगते -मेरा रंग दे बसंती चोला। इसी रंग में रंग के शिवा ने मां का बंधन खोला।। मेरा रंग दे बसंती चोला। यही रंग हल्दीघाटी में खुलकर था खेला।। नव बसंत में भारत के हित वरों का यह मेला। मेरा रंग दे बसन्ती चोला।।

ब्रिटिश सरकार को भगतसिंह का खौप सताने लगा था और वह उनकी चाल समझ गए। गौरों ने फंासी का समय प्रातकाल 24 मार्च, 1931 निर्धारित किया था। पर ब्रिटिश सरकार इस निर्णय में लेट हो गई थी क्योकि भगत ने सम्पुर्ण भारतवासियों में आजादी का जज्बा कायम कर दिया था। जो उनका प्रमुख लक्ष्य था। जिंदगी तो देश के नाम कर चुके थे, तो मौत से क्या डरेगें। भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को निष्चित तारिक से एक दिन पहले सायंकाल 7.33 बजें ही फंासी पर चढा दिया गया। लाशों को परिवार के हवाले करने की हिम्मत तो गौरों में नहीं थी। उनकी लाशों के टुकडे़ कर रातों रात चुपचाप फिरोजपुर के पास सतलुज नदी के किनारे जलाने के लिए ले जाया गया। पर जनता हाथ में मशाल लिए वहां जा पहुंचे और अंग्रेज सैनिक लाशों को छोड़ कर भाग गए। देशवासियों ने उनका विधिवत दाह संस्कार किया। भगत सिंह की मुत्यु के बाद भी वह अमर रहे। उनका नाम ही अब देशकी आजादी के लिए काफी था।

भगतसिंह से प्रभावित होकर डाॅ. पट्टाभिसीतारमैया ने लिखा था कि यह कहना अतिष्योक्ति नहीं होगी कि भगतसिंह का नाम भारत में उतना ही लोकप्रिय था, जितना गांधी का। भारत को आजाद कराने में भगतसिंह का बलिदान व्यर्थ नहीं गया और भारत जल्द ही आजाद हो गया। भारत के लिए भगतसिंह तुम अमर हो और अमर रहोगे।

Monday, October 13, 2008

जागो हिन्दुस्तान

उठो वीर अब तुम सब जागो, जागो हिन्दुस्तान।
नई सदी का दौर चला है, न घटने देंगे मान।
उठो वीर अब तुम...

खून बहेगा बह जाने दो, दोष लगेगा लग जाने दो।
भाई मिटेगा मिट जाने दो, उम्र घटेगी घट जाने दो।
देश प्रेम की ज्योत जली है, सब कर दो बलिदान।।

उठो वीर अब तुम...
राजनीति के दौर से बचना, इसके जाल में तुम मत फंसना।
सत्य त्याग की आग में जलकर, एक नया इतिहास है रचना।
प्रेम प्यार से बहुत हो चुका, अब निकालो तीर कमान।।
उठो वीर अब तुम...

धर्म पुकारे तुमको आकर, राजनीति से नजर बचाकर।
घाटी में सुलगे अंगारे ,गद्दारों को घर में पाकर।
आतंकी सारे गद्दारों के पल में हर लो प्राण।
उठो वीर अब तुम...

यह कविता मेरे घनिष्ट पत्रकार मित्र प्रशांत शर्मा द्वारा लिख गया है।

Saturday, October 11, 2008

ठाकरे की दादागिरी

मुंम्बई मेरे बाप की है: उद्धव ठाकरे
उत्तर भारतीयों को तो अभी ट्रेलर बताया था। अभी और कहानी बाकी है।: राज ठाकरे

मैं अगर मुख्यमंत्री होता तो नैनो परियोजना को कभी गुजरात नहीं जाने देता: राज ठाकरे
मनोज कुमार राठौर
भारत देश किसी के बाप का नहीं है और न ही इसमें निवास करने वाली जनता पर किसी प्रकार का प्रतिबंध है। भारत देश के प्रत्येक नागरिक को स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है। पर न जाने क्यों मुंबई को ठाकरे सदस्यों ने अपनी जागीर समझ रखी है।
शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे आतंकवाद के नाम पर काग्रेंस सरकार पर कीचड़ उछाल रहे हंै, तो उनके सुपुत्र उद्धव ठाकरे मुंबई हमारे अपने बाप की कहने से नहीं चुक रहे हैं। उद्धव के चचेरे भाई और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे खुलेआम कहते हैं कि मराठी बनाम बाहरी मुद्दे का तो यह ट्रेलर था। अभी और कहानी बाकी है। इन त्रिमुर्ति की बयानबाजी गंदी राजनीति की व्याख्या कर रही है। इन्होंने तो राजनीति की परिभाषा ही बदल दी। जो राजनेता देश के सुरक्षा और शंति के लिए शपथबद्ध हंै आज वहीं लोकतंत्र की गरिमा भंग कर रहे हंै। लगता है कि सभी नेता क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद, धर्म और समुदाय को लेकर चुनावी अखाडे़ में उतरते हैं। आज देश के विकास के रास्ते में अवरोध बने नेताओं ने तो देश को अपनी निजी सम्पति समझी है। शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे के बेटे उद्धव ठाकरे ने आखिर अपनी भड़ास निकाल ही दी। मुंबई के दशहरा के अवसर पर आयोजित शिवसेना की रैली में कई लोगों पर एक साथ निशाना साधते हुए उन्होंने यहां तक कह दिया कि मुंबई तो मेरे बाप की है। बेटे की ऐसी बयानबाजी से शायद बाप की छाती गर्व से फुल गई हो, लेकिन बेटे की यह टुचची हरकत क्या बताना चाहती है? मुझे तो ऐसा प्रतीत होने लगा है कि मुंबई को बारिस मिल गया है। मुंबई पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी ने उद्धव को चेताते हुए कहा है कि मुंबई किसी के बाप की नहीं है। अब लगता है केंद्र सरकार को ऐसी अपमानिय बयानबाजियों पर कोई नया कानून बनाना पड़ेगा।

भाषावाद को आग देने वाले मनसे के प्रमुख राज ठाकरे ने अब उत्तर भारतीयों के खिलाफ आंदोलन तेज करेंगे। मराठी बनाम उत्तर भारतीयों पर राजनीति करने वाले राज ने कहा कि अब तक जो हुआ, वह ट्रेलर था। अभी और कहानी बाकी है। एक आनलाइन मराठी अखबार के इंटरएक्टिव सेषन में राज ने कहा आप पेइंग गेस्ट बन कर आएं और घर पर ही दावा जताने लगें तो यह बर्दास्त नहीं किया जाएगा। महाराष्ट्र में नौ करोड़ मराठी हाशिये पर हैं ओर बाकी दो करोड़ बाहरी लोग मजे कर रहे हैं। राज ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा स्पष्ट करते हुए यह भी साफ कर दिया कि मनसे लोकसभा चुनाव लड़ेगी। राज ने तो वजनदारी में यह तक कह डाला कि अगर वह मुख्यमंत्री होते तो नैनो परियोजना को कभी गुजरात नहीं जाने देते।
ठाकरे ने भारत देश की राजनीति की परिभाषा ही बदल दी है। अब ऐसा लगता है कि फिर से अंग्रेंजो का प्रबल दौर आएगा और इसकी शुरूवात हमारे देश के अपने ही करेगें।

Wednesday, October 8, 2008

ममता की करनी, सिंगुर को पड़ी भरनी










राजनीति की बत्तर हालत के जिम्मेदार कौन?
मनोज कुमार राठौर
पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य और तृणमुल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बेनर्जी की राजनीति ने सब कुछ मिट्टी में मिला दिया। जहां एक ओर सरकार किसानों को विश्वास दिलाने मे विफल रही, वहीं दूसरी ओर ममता बेनर्जी ने किसानों का विश्वास तो जीता, पर राज्य की तरक्की पर अकुंश लगा दिया। दोनों तरफ से नकारा कोशिश की गई। कोई भी रतन टाटा की नैनो परियोजना को नहीं रोक पाया। अब पश्चिम बंगाल की छवि धूमिल हो गई है। सिंगुर की तो छोड़ो पश्चिम बंगाल के किसी भी ईलाके में कोई भी कम्पनी निवेश करने में दस बार सोचेंगी।

बुद्धदेव भट्टाचार्य आखिर रतन टाटा को नहीं मना सकें। उनके द्वारा की गई सैंकड़ों मीटिंग का कोई नतीजा नहीं निकला। बेचरे क्या करते उनकी टांग तो ममता जी खिंच रही थी। चलो माना कि ममता बेनर्जी किसानों की हित की बात कर रही है पर इस हित के पीछे उनका भी वोट हित छिपा है। बहनजी ने रतन टाटा को नौ दो ग्यारहा कर दिया पर शायद वह इस बात से अनभिज्ञ है कि किसी राज्य की तरक्की में उद्योग का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है। मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने कितनी इनवेस्ट मीटिंग रखी और अपने राज्य में सभी कम्पनी को निवेश करने के लिए आंमत्रित किया। मध्य प्रदेश के विकास के लिए वह नैनो परियोजना को भी लाने के लिए प्रयत्नशील रहे। पश्चिम बंगाल सरकार ने अपने राज्य के विकास के लिए पहला कदम बढ़ाने की कोशिश अवश्य की, पर वह उसमें असफल रहें। कारण साफ है कि पश्चिम बंगाल की राजनीति जनता में विश्वास पैदा नहीं कर पा रही है।

नैनो परियोजना के लिए बुद्धदेव ने 1000 एकड़ जमीन और श्रेष्ठंतम रियायते दी थी। बुद्धदेव चाहते थे कि टाटा की इस परियोजना से उनके राज्य की स्थिति सुधरेगी और बेरोजगारों को रोजगार भी मिलेगा, लेकिन वह किसानों की मांग और उनके विश्वास पर खरा नहीं उतर सकें जिसका फायदा ममता बहन ने ले लिया। नैनो फैक्ट्री 300 एकड़ जमीन पर स्थापित हो चुकी थी लेकिन उसके कल-पुर्जे बनाने के लिए 1000 एकड़ जमीन की ओर आवश्यकता थी। किसान भाईयों को सरकार बाजार मूल्य से भी अधिक कीमत देने को तैयार थी। रतन टाटा किसानों की मांगों को पूरी नहीं कर पर रहे थे। किसानों ने सरकार के सामने अपनी मांगों को लेकर प्रस्ताव भी रखा परन्तु इसका कोई नतीजा सामने नहीं आया, जिससे किसान नाराज थे। ममता ने किसानों के जख्म पर मलम लगाते हुए उनका साथ दिया और अंसन पर बैठ गई। ममता का जन आंदोलन बिकराल रूप धारण करने लगा, जिसको देखते हुए रतन टाटा ने किसानों की 150 एकड़ जमीन वापस की। इसके बाद भी आंदोलन थमने को नाम ही नहीं ले रहा था। ऐसे हालात में नैनो परियोजना प्रांरभ करना संभव नहीं था इसलिए रतन टाटा के सामने सिंगुर से नैनो परियोजना को हटाने के अलावा कोई विकल्प शेष बचा नहीं।

1500 करोड़ के निवेश के बाद भी हालात में सुधार नहीं आ रहा था इसी कारणवश रतन टाटा ने अपनी नैनो परियोजना गुजरात में लगाना का फैसला लिया। अब नैनों ने सिंगुर के किसानों और वहां की राजनीति से टाटा कर लिया और गुजरात का दामन थाम लिया। पश्चिम बंगाल नाम पर जो कालिख पुती है उसको मिटाना असंभव है।

विफल राजनीति का उदाहरण है
पश्चिम बंगाल...?

Monday, October 6, 2008

ईसाइयों पर हमला सही या ग़लत?

  • मनोज राठौर

गिरिजाघरों पर किए जा रहे हमले में हिन्दु संगठनों को दोषी ठहराया जा रहा है, लेकिन यह असत्य है। इन हमलों को यदि गंभीरता से लिया जाए तो इसका जिम्मेदार स्वयं इसाई समुदाय है।

ईसाई समुदाय अंग्रेजों के सिद्वांतों पर कार्य कर रहा है। जिस तरह अंग्रेजों ने भारत देश को शनैः शनैः अपना गुलाम बनाया थाए उसी नीति पर ईसाई समुदाय काम कर रहा है। वह चाहता है कि हिन्दुस्तान को यदि गुलाम बनाना है तो सबसे पहले उसकी जनता का धर्मांतरण किया जाए। पर वह ऐसा करने में असफल हो रहे हैंए क्योंकि यदि वह ऐसा काम करते हैं तो उसका विरोध जनता द्वारा किया जाता है। भारत के हर एक कोने में ईसाई समुदाय बसा है और उसके द्वारा संचालित कई संस्थाएं जनता के लिए काम भी कर रही हैं। पर जब धर्मांतरण की बात आती है तो उसका खामियाजा भी उसे ही भुगतना पड़ता है।

मैं भी ईसाई समुदाय द्वारा संचालित डगलस हाई सैकण्डरी स्कूल से अपनी 12वीं की पढ़ाई पूरी की। जब मैं वहां 10वीं कक्षा में पहुंचा तो मुझे ईसाइयों की नीति के बारे में पता चला। हमारी एक अतिरिक्त कक्षा लगती थी, जहां हमें बाइबिल के बारे में बताया जाता था। प्रत्येक रविवार वहां चर्च के कार्यक्रम होते थे। यहां हजारों की संख्या में लोग आते थे। यह प्रक्रिया यूं ही चलती रही, उस समय मैंने अखबार में एक फोटो देखा। वह फोटो किसी ओर का नहीं बल्कि मेरे प्राचार्य महोदय जी का था। जब मैंने वह खबर पड़ी तो पता चला कि वह गोविन्दपुरा स्थित एक चर्च में गये थे। वहां बजरंग दल ने उन पर हमला किया। हमले का कारण था धर्मांतरण। बजरंग दल का आरोप था कि चर्च में धर्मांतरण का काम चल रहा था। मैंने इस बात को अंधविश्वास मानाए क्योंकि कोई किसी का धर्म परिवर्तन कैसे कर सकता है।

भोपाल से करीब 45 किलोमीटर की दूरी पर एक गांव में मेरे रिश्तेदार रहते हैं। वहाँ एक ईसाई समुदाय का चर्च भी है। मुझे अपने रिश्तेदार से कुछ काम था अतः मैं वहां गया। अपने काम के साथ मुझे अपने प्राचार्य की घटना भी याद आ गई। मैंने वहां स्थित कुछ लोगों से बात की। जिससे मुझे पता चला कि ऐसा भी कुछ हो सकता है। वहां के स्थानीय लोगों ने बताया कि चर्च के फादर उनका निःशुल्क इलाज और बच्चों को पढ़ाने का कार्य भी करते हैं। लेकिन उन्होंने मुझे एक और बात बताई। वहां के लोगों से कहा जाता है कि आप सब ईसाई धर्म को अपना लो। तब ही तुम्हें ईश्वर की प्राप्ति होगी। मुझे आश्चर्य हुआ कि ईसाई धर्म इतना नीचे गिर सकता है।

कर्नाटक, बैंगलुरु और उड़ीसा के गिरिजाघरों में जब आग लगाने की घटना मैंने अखबार में पड़ी तोए सभी के पीछे एक ही कारण छिपा हुआ थाए धर्म परिवर्तन। इस पर भी मैं ईसाइयों के हित में थाए परन्तु सतना में जो घटना हुई हैए उससे मेरे विचार एकदम बदल गए। सतना में क्रिस्तुकला मिशन हायर सेकंडरी स्कूल में कार्यरत 18 ड्राइवरों को नौकरी से निकाल दिया गया। वहां की प्रिंसिपल फादर वर्गीस ने कहा कि दरअसल स्कूल के पास वाहन नहीं है इसलिए ड्राइवरों को हटाया गया है। पर मामला कुछ और ही था जिसके कारण ड्राइवरों को निकाला गया। सभी 18 ड्राइवरों ने एक जुबान में कहा कि एक दिन फादर वर्गीस हम सभी को सतना नदी पर ले गए तथा सभी को पानी में डुबकी लगाने को कहा और स्वयं ने भी डुबकी लगाई। डुबकी लगवाने के बाद फादर ने कहा कि आज से तुम्हारे माता.पिता मर चुके हैंए तुम मरियम की संतान हो। इस तरह जबरिया धर्म परिवर्तन कराए जाने का ड्राइवरों ने विरोध किया। इस पर बिना कारण बताए स्कूल प्रबंधन ने नौकरी से हटा दिया। इस तरह धर्मांतरण के कई मामले खबरों की सुर्खियां बने। कर्नाटक सरकार और केंद्र सरकार ने इन घटनाओं को रोकने के लिए आरोपियों पर कानूनी धाराएं भी लागू की। पर सरकार इन घटनाओं के कारणों को पता करने पर जोर नहीं दे रही है।ईसाई समुदाय पर हमले के पीछे एक ही कारण निकल कर आता है कि वह लोगों को धर्म परिवर्तन करने के लिए मजबूर करता है। ईसाई पर जो हमला हो रहा है वह सही है या गलतए इसका फैसला तो जनता कर ही देती है। यदि ईसाई समुदाय अपनी यह हरकत छोड़ दे तो उन पर ऊंगली तक कोई नहीं उठाएगा।

लोगों के धर्म पर नज़र मत डालो

वरना यूं ही दर्द को सहना पड़ेगा

Wednesday, October 1, 2008

नाम तो है पाक, पर काम है नापाक












मनोज कुमार राठौर
भारत के प्रत्येक नागरिक को पता है कि आतंकवादी देश कौन सा है?...फिर भी खामोशी क्यों? अब हमें यह चुप्पी तोड़नी होगी। पाकिस्तान आतंकवादी घटना को करने से भले ही इंकार करता हो लेकिन अब किसी देश से यह छिपा नहीं है कि पाकिस्तान ही आतंकवाद का जनक है। इस देश से ही जेहाद के नाम पर सैकड़ों आतंकवादी संगठन बनाए जा रहे हैं। क्या यह पाकिस्तान इन आतंकवादी से सुरक्षित है? पिछले दिनों पाकिस्तान में कई बम धमाके हुए जिसमें कई लोगों की जाने गई। क्या वहां मरने वाले लोग आतंवादी थे या फिर मारने वाले? इसका जबाव तो पाकिस्तान ही दे सकता है। आतंकवादी का न तो कोई धर्म होता है और न कोई महजब। वह जिस लड़ाई के लिए आतंकवाद का सहारा ले रहे हैं, उस वजह को हिन्दुस्तान जानता है। जम्मू कश्मीर को तो वह नैतिक युद्ध से हासिल नहीं कर सकता है इसलिए उसे प्राप्त करने के लिए आतंकवाद का सहारा लेता है। पर भारत इस आतंकवादी घटनाओं से डरने वाला नहीं है। जब हमारा देश विश्व शक्ति अमेरिका से परमाणु करार कर सकता है तो इस पर भी कड़ा कदम उठा सकता है। पाकिस्तान यदि समय रहते अपनी हरकतों से बाज नहीं आया तो भारत के पास एक ही रास्ता बचता है, वह है पाकिस्तान पर हमला।

किसी ने सही कहा है कि मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना। जब भी आतंकवादी खुलेआम कहते है कि वह इस्लाम की रक्षा के लिए अपने प्राणों तक की आहुति दे देगें, लेकिन वह यह नहीं जानते हैं कि जब धमाके किये जाते है तो उसमें मरने वाले लोगों में मुस्लमान भाई भी शामिल होते हैं। क्या वह असली इस्लामी नहीं हैं? षर्म करो ऐसे मुस्लमानों जो इस्लाम धर्म को बदनाम करने पर तुले हो। भारत के मुस्लमानों से पूछो कि इस्लाम धर्म क्या है? हिन्दुस्तान में पाकिस्तान से भी ज्यादा मुस्लमान निवास करते हंै। वह चाहे तो भारत में जेहाद के नाम पर बगावत कर सकते हैं, परन्तु वह ऐसा नहीं करना चाहते क्योंकि उन्हें पता है कि इस्लाम धर्म क्या है। पाकिस्तान में अब ऐसा लगता है कि इस्लाम धर्म की परिभाषा को बदल दिया गया है। इस परिभाषा को बदलने वाले ओर कोई नहीं, बल्कि उसके अपने ही है।
कल रूस को बिखरते देखा था
अब ईराक को टूटता देखेगें
हम बर्क-ए-जेहाद के शोलों में
पाकिस्तान को जलता देखेगें।
पाकिस्तान की इस आतंकवादी फैक्ट्री में ऐसे बम बनाए जा रहे हैं जिनके धमाकोें से भारत का दिल तक दहल गया। लगता है कि इन धमाकों की आवाज भारत में नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में सुनाई देगी जिसका जीता जागता उदाहरण है अमेरिका का वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर पर हमला। इस आतंकवादी नौका को जो भी चला रहा है वह यह जान ले कि जब कुत्ते की मौत आती है तो वह सभी पर भौंकता है और बाद में लोग उसे पागल करार देकर मार देते हंै। भारत में सीरियल बम धमाकों को आतंकवादी अपनी सफलता समझते हैं। इस सफलता से उनके आका तो बहुत खुश होगें क्योंकि वह आगे से बार तो कर नहीं सकते इसलिए पीछे से ही सही। चेतावनी देकर हमला करने से उनका सीना जरूर फूल गया होगा। पर भारत की एकता पर चोट करने वाले यह कीदड़ अब कुत्ते की मौत मारे जाएगें।

पहले से गरीबी की मार झेल रहा है। शायद हमारा पड़ोसी देश यह भूल गया है कि जब वह मुस्लिमांे को लेकर भारत से अलग हुआ था तो सुनसान जमीन पर नंगा खड़ा हुआ था। हमनें 35 करोड़ रुपए दिए तब जाकर उसके नंगे शरीर पर कपड़े आए। आज देखों वही भिखारी देष अपनी आतंकिय सेना लेकर भारत को संाप्रदायिकता के नाम पर लड़वाना चाहता है, जिससे भारत की एकता डेमेज़ हो जाए और इसका फायदा वह ले सके, लेकिन उसके यह नापाक ईरादे कभी भी सफल नहीं होगें क्योकि भारत में अनेकता होने के बाद भी एकता है।
भारत चाहे तो पाक को चंद मिनटों में अपना गुलाम बना सकता है पर वह निर्दोषों की जान नहीं लेना चाहता इसलिए बार-बार समझोता करता है। पर अब मुझे ऐसा लगता है कि इनके समझ में नहीं आएगी। अब इन्हें पूरी फिल्म दिखाने की जगह बस एक छोटा से टेलर दिखाया जाए ताकि इनके दिलों में खौफ पैदा हो, वरना यह साले सिर पर चढ़कर ताडंव करेगें। इस आतंकवादी बीमारी को भारत से जड़ से खत्म करना होगा।
आतंकवाद समस्या है हमारी
दूर करने की जिम्मेदारी है हमारी।