स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में 13 अप्रैल 1919 का दिन आँसुओं की बूंदों से लिखा गया है, जब अंग्रेजों ने अमृतसर के जलियांवाला बाग में सभा कर रहे निहत्थे भारतीयों पर अंधाधुंध गोलियां चलाकर सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार दिया। मरने वालों में मां के सीने से चिपटे दुधमुँहे बच्चे, जीवन की संध्या वेला में देश की आजादी का ख्वाब देख रहे बूढ़े और देश के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार युवा सभी शामिल थे।
हदृय विदारक इस घटना से भारत मां का सीना छलनी हो गया। इस घाव को भरने के लिए महान क्रांतिकारी ऊधमसिंह और अन्य क्रांतिकारियों की टोलियों के मतवालों ने इसका बीड़ा उठाया। गोरे का अंत करीब था। वह इस गलत-फहमी में थे कि भारतवासी डर गए। आजादी के दौरान घटनाएं तो अनेकों हुई, लेकिन जलियंावाला बाग का नरसंहार ने भारत को हिला कर रख दिया। ऐसे में हम कहां चुप बैठने वाला थे। हिन्दू, मुस्लिम और सिख एकता की नींव रखने वाले ऊधमसिंह उर्फ राम मोहम्मद आजादसिंह ने इस बर्बर घटना के लिए माइकल ओ डायर से बदला लेने की ठानी। माइक उस समय पंजाब प्रांत का गवर्नर था। गोरे अंग्रेज अपनी इस कायरता पर बहुत खुश थे, वह सोचने लगे थे कि भारतीयों का साहस खत्म हो गया है। उन सालो को यह नहीं पता कि जब गीदड़ की मौत आती है तो वह गांव की तरफ भागता है। ऐसा ही माइकल के साथ हुआ, वह भी जगह-जगह भागता रहा। ऐसे हालात में दिलों के जख्मों को भरने के लिए माइकल को मौत के घाट उतारा जरूरी था। लेकिन अपने देश के क्रंातिकारी चंद्रशेखर आजाद, राजगुरू, सुखदेव और भगतसिंह उसके विनाश के लिए पहाड़ की तरह खड़े थे।
जलियंावाला बाग में गवर्नर के आदेश पर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड, एडवर्ड हैरी डायर, जनरल डायर ने 90 सैनिकों को लेकर जलियांवाला बाग को चारों तरफ से घेर कर मशीनगनों से गोलियां चलवाईं। अपनी जान बचाने के लिए सब उस स्वर्गीय रूपी कुंए में शमा गए जो आज भी उनके बलिदान का याद दिलाता है। अब तो वहां जाकर ऐसा प्रतीक होता है कि कुंए में बच्चों का विलाप, मां की पुकार और बुजुर्गों कराहना चारों दिशाओं में गूंज रही है। ऊधमसिंह ने शपथ ली कि वह माइकल ओ डायर को मारकर इस घटना का बदला लेगा। मिषन माइकल के लिए ऊधमसिंह ने अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमेरिका की यात्रा की। अंगे्रजों का अंत अब करीब था। उसने पूरे भारत को ललकारा। मां की गोद में खेल रहे बच्चे की आंखों में बदले की भावना थी। 1934 में ऊधमसिंह लंदन पहुंचे और वहाँ 9 एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड़ पर रहने लगे। वहां उन्होंने यात्रा के उद्देश्य से एक कार खरीदी और साथ में अपना मिशन पूरा करने के लिए छह गोलियों वाली एक रिवाल्वर भी खरीद ली। भारत का यह वीर क्रांतिकारी माइकल ओ डायर को ठिकाने लगाने के लिए उचित वक्त का इंतजार करने लगा। जलियांवाला बाग हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को रायल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के काक्सटन हाल में बैठक थी जहां माइकल ओ डायर भी वक्ताओं में से एक था। ऊधमसिंह उस दिन समय से ही बैठक स्थल पर पहुँच गए। अपनी रिवाल्वर उन्होंने एक मोटी किताब में छिपा ली। इसके लिए उन्होंने किताब के पृष्ठों को रिवाल्वर के आकार में उस तरह से काट लिया, जिससे डायर की जान लेने वाला हथियार आसानी से छिपाया जा सके। बैठक के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए ऊधमसिंह ने माइकल ओ डायर पर गोलियाँ दाग दीं। दो गोलियाँ डायर को लगीं, जिससे उसकी तत्काल मौत हो गई। भारत मां के दूध का कर्ज इस सपूत ने निभाया और 31 जुलाई 1940 को पेंटनविले जेल में फांसी दी गई। आज भी जलियांवाला बाग नरसंहार, अमृतसर नरसंहार के रूप में जाना है। जलियांवाला बाग में अंगे्रजों ने 10 मिनट में 1500 से अधिक मौतें, 2000 से अधिक घायल कर दिया।
ऐतिहासिक धरोहर में जलियांवाला बाग एक स्मारक उद्यान है। उद्यान में जाने के बाद जलीयांवाला बाग के यादें ताजा हो जाती हैं। आंखों के सामने उन बेगूनाहों की लाशे नजर आने लगती हैं। मानो हम से कह रही हों कि मेरा भारत देश कितना प्यारा है। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में आजादी के लिए एक नया मोड़ साबित हुआ। यह बाग उन शहीदों की याद में बनवाया गया जो लोगों को गोलियों से बचने के लिए कुंए में कूद गए थे। दीवारों पर गोली के निशान आज भी दिखाई देते हैं। आज भी अमृतसर के इस उद्यान में आजादी की लहरें हवाओं में आजादी की दस्तान बयान करती है।
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