मनोज कुमार राठौर
हमारे देश में चुनावी बजट का किसको ख्याल है? चुनाव आते ही सभी राजनीतिक दल अपने-अपने राग अलापने लगते हंै। लोकतंत्र की इस अर्थव्यवस्था में विधानसभा, लोकसभा चुनाव और अन्य छुट-पुट चुनाव होते रहते हैं। सभी चुनाव अलग-अलग समय अवधि में कराए जाते हैं जिसमें समय और धन की बर्बादी होती है। जनता भी बार-बार चुनावों में भाग लेने मे कतराती हैं इसीलिए हर साल वोटिंग का प्रतिशत कम होता जा रहा है। चुनाव आयोग को ऐसी व्यवस्था करना चाहिए जिसमें सभी चुनाव एक ही समय में हो सके। ऐसा करने से देश को आर्थिक रूप से सुदृढ़ता प्राप्त होगी। पिछले लोकसभा चुनाव में 1350 करोड़ रुपए खर्च हुए थे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि जब तीन बार चुनाव होते हैं तो उसमें 4350 करोड़ रुपए की खर्चा आता है। चुनाव आयोग यह 4350 करोड़ रुपए बचाकर इसे देश के विकास कार्यों में लगाया जा सकता है। चुनाव आयोग की आंखों पर यह काली पट्टी कब तक बंदी रहेगी?
चुनाव आयोग को 45 वर्ष पुरानी रणनीति अपनाना चाहिए। 45 वर्ष पहले तक देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ होते थे। चुनाव हुए, सरकारें बनीं और फिर पांच साल जनहित के कामों पर ध्यान। लेकिन आपातकाल के बाद बदली राजनीतिक परिस्थितियों ने इस परंपरा को इतिहास बना दिया और 1977 के बाद से तो राजनीतिक प्रतिशोध के चलते राज्य विधानसभाओं को भंग करने की होड़ और सत्ता के पायदान तक पहंुचने के लए शुरू हुए दलबदल के खेल ने जल्दी-जल्दी चुनाव का ऐसा रास्ता खोला जो बंद होने का नाम ही नहीं ले रहा है। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने पिछले महीने एक न्यूज चैनल के समारोह में कहा था कि सभी संवैधानिक संस्थाओं के चुनाव एक ही दिन में कराए जाने चाहिए। हालांकि सभी तरह के चुनाव एक ही दिन में कराने का विचार अव्यावहारिक लगता है, लेकिन यदि सभी राजनीतिक दल इस पर राजी हो जाऐ, तो यह सपना पूरा हो सकता है। यदि हम हर समय चुनाव में ही व्यस्त रहे तो विकास का लक्ष्य कैसे हासिल किया जा सकता है, यह सोचने की बात है। एपीजे अब्दुल कलाम भी चाहते है कि चुनावों को एक साथ कराना चाहिए जो विकास के लिए अति आवष्यक है। हमारे देश के पूर्व उप राष्ट्रपति भैंरोसिंह शेखावत ने कहा कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव पांच साल बाद एक निष्चित अवधि में एक साथ कराए जाने चाहिए। यदि किसी सरकार को अविष्वास प्रस्ताव के माध्यम से अपदस्थ करने की कोशिस की जाए तो ऐसी स्थिति में पहले ही वैकल्पिक सरकार गठन की व्यवस्था का प्रावधान भी होना चाहिए। अपरिहार्य स्थिति में राज्य सरकार को भंग करना भी पड़े तो ऐसे चुनाव विधानसभा की शेष अवधि के लिए ही कराए जाने चाहिए। शेखावत ने भी स्पष्ट कहा है चुनाव को एक निष्चित अवधि में कराए जाना चाहिए और चुनाव में वैकल्पिक प्रावधान भी होना चाहिए। पूर्व चुनाव आयुक्त डाॅ। जीवीहजी कृष्णामूर्ति ने अजीत मैदोला को बताया कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होने चाहिए। लेकिन हमारे देश में संविधान सर्वोपरि है और उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। इसके चलते लोकसभा और विधानसभा का चुनाव एक साथ कराया जाना संभव नहीं हो पा रहा है। उन्होंने कहा कि इस समय राजस्थान समेत छह राज्यों के विधानसभा चुनाव होने है ओर उस के तुरंत बाद लोकसभा चुनाव। अच्छा हो कि छह राज्यों के चुनाव और लोकसभा चुनाव एक साथ कराए जाएं। चुनाव एक साथ कराने से कई फायदे हैं। एक तो आम आदमी की चुनाव के प्रति रूचि बनी रहती है,दूसरा खर्चा कम होता है ओर सभी राजनीतिक दलों को भी लाभ होता है। उन्होने कहा कि 1952 से लेकर 1962 तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ-साथ होते थे और एक दिन में ही पूरे देश में चुनाव सम्पन्न हो जाते थे। इससे आम आदमी तो वोट डालने जाता ही था, सरकारी कर्मचारियों को भी राहत मिलती थी। अब विधानसभा ओर लोकसभा के चुनाव एक साथ हो सकते हैं। मेरा सुझाव यह है कि बड़े राज्यों में तीन चरणों में, मध्यम राज्यों मे दो चरणों में और छोटे राज्यों में एक चरण में चुनाव हो सकते हैं। चरणों में चुनाव कराने के पीछे मकसद एक ही होता है कि पर्याप्त सुरक्षा बल उपलब्ध हो जाते है और चुनाव निष्पक्ष और साफ-सुथरे ढंग से कराए जाते हैं।
लोकसभा, विधानसभाओं और स्थानीय पालिका-पंचायतों के चुनाव अलग-अलग होने से जहां चुनाव खर्च सामान्य से तीन गुना तक बढ़ जाता है, वही अलग-अलग चुनाव होने से आचार संहिता के चलते सामान्य कामकाज प्रभावित होते है। पिछले लोकसभा चुनाव में लगभग 1350 करोड़ रुपए खर्च हुए थे। राज्य विधानसभाओं व सभी राज्यों में पालिका-पंचायत के खर्चे भी लगभग 30000 करोड़ रुपए बैठते है। यानी एक साथ चुनाव होने पर जो खर्च 1350 करोड़ ही हो वह तीन बार अलग-अलग चुनाव होने पर लगभग4350 करोड़ आता है। चुनाव की एक धारा की बात को चुनाव आयोग को अलापना चाहिए। चुनाव के एक साथ करना देषहित में है। भारत देश शनैहशनैह विकास कर रहा है, ऐसे में यह पैसा उसके विकास कार्यों में लगाया जाए तो देश की विकास गति की गति में तीव्रता लाई जा सकती है।
sir...ye baat ek dam sahi h .mera bhi manna h ki sarkar ko gambhirta se is baat par vichar karna chahiye ...kioki baat desh hit mai h.
ReplyDeleteबस अपना हित देखते,जनता झोंकी भाङ.
ReplyDeleteबाङ खा रही खेत को देश का बँटा ढार.
देश का बंटाढार,किया है इस सिस्टम ने.
चुनाव है हथियार-बुराई इस सिस्टेम में
कह साधक कवि, वे अच्छे, जो पार देखते.
बस अपना हित दल-सारे-बेकार-देखते.
तो बन्धु! चुनाव एकसाथ हों या अलग-अलग,फ़र्क क्या है? मेला लग जाता है लूट का...रही बात जनता के धन की... सो सरकारें बेतहासा नोट छाप रही हैं...भ्हले शेयर बाज़ार ध्वस्त हो जाये...इनका क्या बिगङता है यार!
बचना है तो कुछ नया सोचो-नया करो.