
Tuesday, September 30, 2008
कुपोषण बनी देशव्यापी समस्या

Monday, September 29, 2008
मत डर हिन्दुस्तान, क्या करेगा पाकिस्तान
मनोज कुमार राठौर
मत डर हिन्दुस्तान
क्या करेगा पाकिस्तान
हमें पता आतंकवादी कौन
जब भी क्यों हम रहते मौन
मासूमो की जान है जाती
सरकार तो बस नोट दिखाती
लगता नेताओं की है सांठ-गांठ
इसलिए सुनती है उनकी बात
पोटा कानून लागू नहीं करती
क्यों नये कानून की माला जपती
चुनौती देकर करते हमले
फिर भी हम नहीं होते चोकन्ना
आख़िर क्यों नहीं लेतें बदला
कब तक सहगें हम यह हमला
जब किया है परमाणु करार
तो इस पर भी करो विचार
अब तो करना होगा युद्ध
तभी होगें हम सब मुक्त
कब तक करे हम समझोता
बह देते हर समय धोखा
सभी एक ही थाली में हैं खाते
इसलिए घर के भेदी लंका ढाते
अब समझोते की नहीं
समझाने की बारी है
चंद मिनटों में करो यह काम
भारत मां का लेकर नाम
Wednesday, September 24, 2008
आतंकवाद भाई

Saturday, September 20, 2008
व्यंग्य
तुम्हें पोटे का पोटा..
पोटा कानून को लेकर कर पार्टी आमने-सामने हैं। यह वह पोटा है जिस पर सभी राजनीति दल अपनी रोटियां सेंकना चाहते हैं। हां मैं बात कर रहा हूं आतंकवाद निरोधक कानून (पोटा) की जो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल से अभी तक अधर में है। आतंकवाद से निपटने के लिए बनाए गए इस कानून की तो मिट्टीपलित हो रही है। अब तो ऐसा लगता है कि पोटा न तो घर का है और न ही घाट का। उसका तो भगवान ही मालिक है। राजनीतिक पार्टियां तो यही चाहती है कि पोटा का ताज उनके सिर पर सजे। पर शायद इस पोटा-
 पोटा की रट में तो उसका आस्तिव ही समाप्त हो जाएगा। हाए रे यह पोटा, किस ने बनाया यह पोटा, यह सवाल सभी के मन में है। जब पोटा का प्रयोग ही नहीं किया जा रहा तो यह पोटा कानून हमारे लिए बेकार है। पोटा के रचियता यह भूल गए थे कि यह पोटा आखिर क्यों बनाया गया।
पोटा की रट में तो उसका आस्तिव ही समाप्त हो जाएगा। हाए रे यह पोटा, किस ने बनाया यह पोटा, यह सवाल सभी के मन में है। जब पोटा का प्रयोग ही नहीं किया जा रहा तो यह पोटा कानून हमारे लिए बेकार है। पोटा के रचियता यह भूल गए थे कि यह पोटा आखिर क्यों बनाया गया।मालवी भाषा में पोटा का अर्थ होता है गोबर। भारत में गोबर के कण्डे का बहुत चलन है। जिसके पीछे कभी-कभी लड़ाई भी हो जाती है। मोहल्ले की गली में यदि गोबर पड़ा है तो मोहल्ले के कई लोग आपस में झगड़ने लगते हैं, जिसमें एक बोलता है कि यह मेरा गोबर है, तो दूसरा कहता है कि इस पर मेरा अधिकार है। सभी को मालूम है कि गोबर से कण्डे बनाए जाते हैं। पर यह बात मुझे हजम नहीं होती कि इस गोबर के लिए आखिर लोग क्यों लड़ते हैं। जी हां मेरा इसारा उन राजनीति पार्टियों की तरफ है जो इस गोबर को लेकर लड़ रहे हैं। इस गोबर के पीछे आखिर लड़ाई क्यों की जाती है। यह गोबर (पोटा) किसी के भी पास जाए। लक्ष्य यही होना चाहिए की इसका कण्डे अवश्य बने। नेताओं ने तो इतनी टुच्चाई दिखाई है कि इसको लेकर राजनीति कर रहे हैं। मैं तो सीधी बात करता हूं कि यह पोटा कानून किसी भी राजनीति पार्टी का ताज बने, पर शर्त इतनी सी है कि इस पोटा कानून को लागू भी करे, तभी मानेगें कि तुम मैं दम हैं। आतंकवादी एक के बाद एक तमाचे हमारी देश की जनता पर ही नहीं जड़ रहे हैं अपितू पूरे भारत देष में इस तमाचे की गूंज सुनाई दे रही है। सरकार के निकम्मेपन के प्रति आष्वस्त आतंकवादी हमला कर रहे हैं, जान-माल की नुकसान कर रहे हैं वो भी खुलेआम चुनौती देकर। वे जानते है कि यहां का हर पोटा अंततः कण्डे में तब्दील हो जाता है। जिसको लेकर राजनीति पार्टी कभी एकमत नहीं हो सकती है। इस देष में पोटा लागू करने की दूर की बात है यहां की खुफिया एजेंसी भी खोखली साबित हो रही हैं। सरकार पोटा की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दे रही, परन्तु वह अपने नये कानून रासुका की तरफ उसका ज्यादा ध्यान है। सरकार का कहना है कि रासुका कानून पोटा जैसा होगा। मैं तो साफ कहता हूं कि जब पोटा लागू करने में इनकी हवा निकल रही है तो यह रासुका कानुन क्या खाक लागू करेगें। आतंकवादियों के खिलाफ जब तक सरकार यह नया कानून लागू करेगी जब तक षायद आतंकवाद दूसरी घटना को अंजाम दे चूके होगें, अब काम पैसेंजर का नहीं है बल्कि सुपरफास्ट का है। मतलब है कि चटमगनी और पट विवाह।
Friday, September 19, 2008
विचार
को ख़त्म करने का है
प्रोफेसर राम पुनियानी पेशे से डॉक्टर हैं। फिर आईआईटी मुंबई में पढ़ाते रहे और एक दिन स्वैच्छिक रिटायरमेंट लेकर सांप्रदायिकता की खाई को पाटने में जुट गये। 1992-93 के दंगों ने उन पर गहरा असर डाला। वे कहते हैं कि इन दंगों ने उन्हें समझा दिया था कि सारा झगड़ा लोकतंत्र को ख़त्म करने का है और हिंदु-मुसलमानों के बीच की नफ़रत को ख़त्म करने के मक़सद से
 रिटायरमेंट लेकर सांप्रदायिकता की खाई को पाटने में जुट गये। 1992-93 के दंगों ने उन पर गहरा असर डाला। वे कहते हैं कि इन दंगों ने उन्हें समझा दिया था कि सारा झगड़ा लोकतंत्र को ख़त्म करने का है और हिंदु-मुसलमानों के बीच की नफ़रत को ख़त्म करने के मक़सद से
सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसाइटी एंड सेक्यलुरिज़्म के साथ जुड़ गये। इन दिनों देश भर में घूम-घूमकर वर्कशॉप आदि के जरिये सांप्रदायिकता को ख़त्म करने का संदेश फैलाने में लगे हैं। हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा संस्कृति साझी विरासत विषय पर आयोजित दो दिवसीय वर्कशॉप में उन्होंने खुल कर अपने विचार रखे। इसी मौके पर उनसे बात की पत्रकार और ब्लॉगर शायदा ने।
राजनेताओं की सबसे बड़ी सफलता है और यह सफलता असुरक्षा फैला कर ही मिली है। सही है कि हिंदू भी असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। लेकिन यह असुरक्षा उससे बिल्कुल भिन्न है, जो अल्पसंख्यक होने की है। हिंदुओं की असुरक्षा डिफेंसिव है और मुसलमानों की शारीरिक और मानसिक यातना को भोग लेने के बाद की है। आज राजनीति इस तरह की जाती है, जिससे कि हिंदुओं में यह भावना फैले कि अगर तुमने लामबंदी नहीं की तो मार दिये जाओगे। मैंने 1992-93 के दंगों में खुद देखा है कि मुंबई में किस तरह अल्पसंख्यकों को टारगेट करने से पहले बहुसंयकों में यह फैलाया जाता था कि अगर ऐसा न किया तो हम पर ख़तरा है। यह भावना अब ज़ोर पकड़ चुकी है।
सोच-समझ कर अपनी जनसंख्या बढ़ा रहे हैं? परिवार नियोजन जैसे कार्यक्रम पर उनका रवैया नकारात्मक रहता है?
यह मुद्दा कई बार उठ चुका है और हर बार जब आंकड़े सामने आते हैं तो इसे उठाने वाले चुप बैठ जाते हैं। इसमें सच सिर्फ इतना है कि जहां अशिक्षा और ग़रीबी है, वहां परिवारों में ज़्यादा बच्चे नज़र आते हैं। वे हिंदू भी हो सकते हैं और मुसलमान भी। उनके सामने मामला धर्म से ज़्यादा कमाने के लिए पैदा किये जाने वाले हाथों का होता है। उनके सामने परिवार नियोजन से ज़्यादा रोटी की फिक्र होती है। लेकिन इस दिशा में अब बदलाव दिख रहे हैं।
मुसलमान इस देश में रह कर भी पाकिस्तान के हामी हैं, यहां तक कि क्रिकेट में पाकिस्तान के जीत जाने पर उनके जश्न मनाये की ख़बरें सुनाई देती हैं। यह बात भी हिंदुओं में नफ़रत फैलाने का काम तो करती ही है?
ऐसा नहीं है कि मुसलमान पाकिस्तान के हामी हैं। अगर ऐसा होता तो जिस वक्त पाकिस्तान बना, सारे मुसलमान पाकिस्तान चले गये होते। जो लोग नहीं गये, वे इसी देश को अपना मानते रहे और यहीं रह गये। कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं जो पाकिस्तान के जीतने पर खुश होते हों, लेकिन इसे किसी संकट की तरह नहीं लेना चाहिए। ये वो लोग हैं, जो कहीं न कहीं अपने उन बुज़ुर्गों से जुड़ाव महसूस करते हैं जो देश छोड़ कर चले गये थे। अगर सारे मुसलमान पाकिस्तान के हक में होते तो हमारे पास कभी इस कम्युनिटी से बढिया प्लेयर्स निकल कर आते ही नहीं। वे तो पाकिस्तान के खिलाफ टीम को जिताते हैं न।
पचास हिंदू परिवारों के बीच एक मुसलमान रह सकता है, लेकिन पचास मुसलमानों के बीच एक हिंदू को नहीं देखा जाता, क्यों?
देखिए इस बात की तह में जाने के लिए समझना होगा उन मिथकों को, जो मुसलमानों के ख़िलाफ इस्तेमाल किये जाते हैं। पुराने समय से कहा जाता है - मुसलमानों ने हिंदुओं के मंदिर तोड़े, बलपूर्वक इस्लाम फैलाया, जजिया कर लगाया, हिंदू महिलाओं के साथ जुल्म किया आदि आदि। इसमें जो भी तथ्य हैं, वे इतिहास में दर्ज हो सकते हैं, लेकिन इससे भी यह साबित नहीं हो जाता कि आम मुसलमान इसके आज ज़िम्मेदार है। विभाजन के इन मिथकों में यह भी जुड़ गया कि वे हिंसक, गंदे और अशिक्षित होते हैं। इस सारे प्रचार के कारण आम हिंदू दूरी बरतता है, और मुसलमान तो असुरक्षित है ही। इसके नतीजे में हम देखते हैं कि अब ये लोग अपने-अपने इलाके विकसित करते हैं। हमारे यहां मुंबई में तो मुसलमानों को किराये पर घर लेने तक में दिक्कत आती है। इमरान हाशमी जैसे स्टार तक को यह समस्या झेलनी पड़ी थी। बहुत गंभीर है यह समस्या।
ऐसे में या उम्मीद बचती है?
उम्मीद तो है ही, तभी तो हम यहां यह बात कह पा रहे हैं। हम आम आदमी तक यह संदेश पहुंचाना चाहते हैं कि दोनों धर्मों के लोग अपनी-अपनी आस्था के साथ शांति से रह सकते हैं, अगर वे राजनीति को समझ लें तो। कोई भी धर्म एक दूसरे को नुक़सान पहुंचाने की बात तो कहता ही नहीं। इसमें हमारा फोकस मीडिया और युवाओं पर है। वे अगर सही बात प्रचारित करें, तो यह खाई पाटने में कम समय लगेगा।
ये इंटरव्यू दैनिक भास्कर के चंडीगढ़ एडिशन 16 जुलाई को पब्लिश हुआ था।
Tuesday, September 16, 2008
भारत को चुनौती
आतंकवाद बनाम भारत के इस फाइनल मैच में आखिरकार जीत आतंकवाद की हुई है, जो भारत के लिए एक चुनौती है। आतंकवाद की टीम के कप्तान इंडियन मुजाहिदीन ने अपनी टीम को आपरेशन ‘बेड’ के जरिए जीत दिलाई। यह हार भारत के लिए काफी शर्मनाक है, क्योंकि भारत को इस आपरेशन की जानकारी पहले से थी जिसे उसने गंभीरता से नहीं लिया। अब अगला मैच जो खेला जाएगा, वो तो चोकने बाला होगा क्योकि इस मैच में आतंकवादी अपनी दूसरे आपरेशन ‘बेडमेन‘ की सहायता लेगे। अब देखना यह होगा कि क्या भारत इस मैच हो हराता है या फिर जीत हासिल करता है? यह तो भारत की रणनीति ही बता सकती है।
 आपरेशन बेड का हिस्सा है। बेड याने बेंगलूर, अहमदाबाद और दिल्ली। भारत सरकार को भी यह सूचना थी कि अब आतंकवादियों का अगला निशाना दिल्ली है। मगर दिल्ली का प्रशासन इस बात को हल्के में ले रहा था, जिसका खमियाजा उसे 35 लोग की जान गवाकर देना पड़ा। देश के दिल पर यह ऐसा घाव है जिसकी पूर्ति मुआवजे की राशि से नहीं की जा सकती। इस धमाके में मरने वालों को दिल्ली सरकार ने पांच लाख और केंद्र सरकार ने तीन लाख रुपए दिये। आतंकवाद में होने वाले हर धमाके में जनता का मुंह बंद करने के लिए उन्हें यह मुहावजा दिया जाता है, ताकि लोग इस बात को भूल जाए, पर शायद सरकार यह नहीं जानती है कि जनता की भी आंखे खुल गई है। अब वह भी आतंकवाद का खातमा चाहती है। मीडिया के सचेत करने के बाद भी सरकार ने इस पर कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाए? हालांकि गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने कहा है कि सरकार के पास हमेशा आतंकवादी हमलों की सूचना होती है लेकिन समय और स्थान के बारे में पता नहीं होता। शायद हमारे गृहमंत्री को यह नहीं पता है कि यदि आतंकवादी अपने पूरे मनसूफे साफ कर देगें तो सरकार का काम क्या रहेगा? अब भारत में आतंकवाद का नंगा नाच देखना आम हो गया। आतंकवाद इतने बेखोफ हो गये हैं कि हमले से पहले भारत को चेतावनी देते है। अब तो ऐसा लगता है कि आतंकवादी भारत में धमके करने को केवल एक खेल समझते हैं जिसमें भारत को हराने में उनहे कोई खास मशकत नहीं करना पड़ती है। भारत को आतंकवाद की इस जंग को जितना है तो सबसे पहले उसे चौंकनना रहना पडे़गा।
आपरेशन बेड का हिस्सा है। बेड याने बेंगलूर, अहमदाबाद और दिल्ली। भारत सरकार को भी यह सूचना थी कि अब आतंकवादियों का अगला निशाना दिल्ली है। मगर दिल्ली का प्रशासन इस बात को हल्के में ले रहा था, जिसका खमियाजा उसे 35 लोग की जान गवाकर देना पड़ा। देश के दिल पर यह ऐसा घाव है जिसकी पूर्ति मुआवजे की राशि से नहीं की जा सकती। इस धमाके में मरने वालों को दिल्ली सरकार ने पांच लाख और केंद्र सरकार ने तीन लाख रुपए दिये। आतंकवाद में होने वाले हर धमाके में जनता का मुंह बंद करने के लिए उन्हें यह मुहावजा दिया जाता है, ताकि लोग इस बात को भूल जाए, पर शायद सरकार यह नहीं जानती है कि जनता की भी आंखे खुल गई है। अब वह भी आतंकवाद का खातमा चाहती है। मीडिया के सचेत करने के बाद भी सरकार ने इस पर कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाए? हालांकि गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने कहा है कि सरकार के पास हमेशा आतंकवादी हमलों की सूचना होती है लेकिन समय और स्थान के बारे में पता नहीं होता। शायद हमारे गृहमंत्री को यह नहीं पता है कि यदि आतंकवादी अपने पूरे मनसूफे साफ कर देगें तो सरकार का काम क्या रहेगा? अब भारत में आतंकवाद का नंगा नाच देखना आम हो गया। आतंकवाद इतने बेखोफ हो गये हैं कि हमले से पहले भारत को चेतावनी देते है। अब तो ऐसा लगता है कि आतंकवादी भारत में धमके करने को केवल एक खेल समझते हैं जिसमें भारत को हराने में उनहे कोई खास मशकत नहीं करना पड़ती है। भारत को आतंकवाद की इस जंग को जितना है तो सबसे पहले उसे चौंकनना रहना पडे़गा। Friday, September 12, 2008
बाढ़ पीड़ितों का तो भगवान मालिक है!
 ध्यान तुरंत गया और परमाणु की डगमागाती नौका को किनारे लगाया। पर अब ऐसा लगता है कि सरकार इस प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए कोई खास रणनीति तैयार नहीं कर रही है। उत्तरी बिहार जलप्रलय से विलख रहा हैै। उसकी सुध लेने वाला कोई नहीं। ग्रामीण इलाकों से लेकर षहरों और राहत शिविरों से लेकर अस्पतालों तक व्यवस्थाओं का ऐसा आलम है कि बाढ़ पीड़ितों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। पीड़ितों की संख्या के अनुपात में राहत शिविरों की संख्या बहुत कम है। बाढ़ के समय सरकार अपने दायित्व को ठीक तरीके से नहीं निभा पा रही है, तो बाढ़ के बाद होने वाली समस्या का सामना कैसे करेगी? सवाल यह उठता है कि बाढ़ के बाद उन इलाकों का प्रतिस्थापन का कार्य और महामारियों से बचाव की व्यवस्था जैसी समस्या का सामना सरकार किस ढं़ग से करेगी? बिहार की इस विनाशलीला ने तो बाढ़ नियंत्रण और आपदा प्रबंधन-तंत्र दोनों की पोल खोल दी। राज्य सरकार यह कहकर अपना पलड़ा झाड़ रही है कि यहां हर वर्ष बाढ़ आती है और एक गरीब प्रदेष होने के कारण वह उससे बचने और पीड़ितों की मदद करने के पुख्ता इंतजाम करने में असफल है। इसीलिए बिहार सरकार केन्द्र सरकार का मुंह तक रही है। प्राकृतिक आपदा कुछ कहकर नहीं आती है। इसलिए यह किसी एक राज्य की आपदा नहीं है वरन् सम्पूर्ण भारत देष की आपदा और समस्या है। कोसी के इस कहर से सरकार को निज़ात दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाना चाहिए। प्रलय की यह घड़ी इतिहास में दर्ज हो गई है। बाढ़ का मुख्य कारण नेपाल स्थित कुसहा बैराज बांध है। जिसके टूटने से यह परिस्थिति उत्पन्न हुई। सरकार को इस संदर्भ में नेपाल सरकार से विचार विमर्ष करना चाहिए और उसका पुख्ता इंतजाम भी करना चाहिए, ताकि इस विनाषमय कोहराम का मंजर दौबारा नहीं हो। इस संकट की घड़ी में ईमानदारी और सक्षमता का निर्वहन करते हुए निस्वार्थ भाव से सरकार को मदद करना चाहिए। इस प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए भारत के आम नागरिकों की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह खुलकर मदद के लिए सामने आए। सरकारी और गैरसरकारी दोनों संस्थाएं भी सहायता करें। यदि भारत का प्रत्येक नागरिक एक-एक रुपए भी देते हैं तो अरबों रुपए एकत्रित किए जा सकते हैं जो बाढ़ पीड़ितों के लिए वरदान साबित होगा। सरकार के अलावा भी यह हमारा मानवीय और देषहित के प्रति कर्तव्य बनता है कि बाढ़ के इस कोहराम से निपटने के लिए सभी भारतवासी दृढ़ संकल्पित ।
 ध्यान तुरंत गया और परमाणु की डगमागाती नौका को किनारे लगाया। पर अब ऐसा लगता है कि सरकार इस प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए कोई खास रणनीति तैयार नहीं कर रही है। उत्तरी बिहार जलप्रलय से विलख रहा हैै। उसकी सुध लेने वाला कोई नहीं। ग्रामीण इलाकों से लेकर षहरों और राहत शिविरों से लेकर अस्पतालों तक व्यवस्थाओं का ऐसा आलम है कि बाढ़ पीड़ितों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। पीड़ितों की संख्या के अनुपात में राहत शिविरों की संख्या बहुत कम है। बाढ़ के समय सरकार अपने दायित्व को ठीक तरीके से नहीं निभा पा रही है, तो बाढ़ के बाद होने वाली समस्या का सामना कैसे करेगी? सवाल यह उठता है कि बाढ़ के बाद उन इलाकों का प्रतिस्थापन का कार्य और महामारियों से बचाव की व्यवस्था जैसी समस्या का सामना सरकार किस ढं़ग से करेगी? बिहार की इस विनाशलीला ने तो बाढ़ नियंत्रण और आपदा प्रबंधन-तंत्र दोनों की पोल खोल दी। राज्य सरकार यह कहकर अपना पलड़ा झाड़ रही है कि यहां हर वर्ष बाढ़ आती है और एक गरीब प्रदेष होने के कारण वह उससे बचने और पीड़ितों की मदद करने के पुख्ता इंतजाम करने में असफल है। इसीलिए बिहार सरकार केन्द्र सरकार का मुंह तक रही है। प्राकृतिक आपदा कुछ कहकर नहीं आती है। इसलिए यह किसी एक राज्य की आपदा नहीं है वरन् सम्पूर्ण भारत देष की आपदा और समस्या है। कोसी के इस कहर से सरकार को निज़ात दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाना चाहिए। प्रलय की यह घड़ी इतिहास में दर्ज हो गई है। बाढ़ का मुख्य कारण नेपाल स्थित कुसहा बैराज बांध है। जिसके टूटने से यह परिस्थिति उत्पन्न हुई। सरकार को इस संदर्भ में नेपाल सरकार से विचार विमर्ष करना चाहिए और उसका पुख्ता इंतजाम भी करना चाहिए, ताकि इस विनाषमय कोहराम का मंजर दौबारा नहीं हो। इस संकट की घड़ी में ईमानदारी और सक्षमता का निर्वहन करते हुए निस्वार्थ भाव से सरकार को मदद करना चाहिए। इस प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए भारत के आम नागरिकों की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह खुलकर मदद के लिए सामने आए। सरकारी और गैरसरकारी दोनों संस्थाएं भी सहायता करें। यदि भारत का प्रत्येक नागरिक एक-एक रुपए भी देते हैं तो अरबों रुपए एकत्रित किए जा सकते हैं जो बाढ़ पीड़ितों के लिए वरदान साबित होगा। सरकार के अलावा भी यह हमारा मानवीय और देषहित के प्रति कर्तव्य बनता है कि बाढ़ के इस कोहराम से निपटने के लिए सभी भारतवासी दृढ़ संकल्पित ।लेख
मनोज कुमार राठौर
 भी एक सच्चे देशभक्त हैं। बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है-‘तुम अपने इष्टमित्रों द्वारा इस बात का विश्वास दिलाने की कोशिश की कि तुम बनावटी आदमी नहीं हो, तुम्हारे दिल में मुल्क की खिदमत करने की ख्वाहिश थी। अंत में तुम्हारी विजय हुई।...तुम सच्चे मित्र बन गये।...सबको आश्चर्य था कि एक कट्टर आर्य समाजी और एक मुसलमान का कैसा मेल?’ इन दोनों में अगाध प्रेम था। अधिकतर वे एक थाली में खाना खाया करते थे। अशफाक से बिस्मिल इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने लिखा है-‘मेरे हृदय से यह विचार जाता रहा कि हिन्दू-मुसलमान में कोई भेद है।’ वे बिस्मिल को हमेशा इस बात के लिए अनुरोध करते थे कि वे उर्दू में भी लेख व पुस्तक लिखें, ताकि मुसलमानों तक भी उनके विचार पहुंचे। एक बार अशफाक बीमार हुए और बेहोशी की हालत में वह ‘राम’ कह रहते थे। वहां मौजूद सभी को अचरज हुआ कि वह ‘राम...राम’ क्यों कह रहा है, उन्हें तो ‘अल्लाह-अल्लाह’ कहना चाहिए। पास मौजूद एक मित्र ‘राम’ के भेद को जान गये और फिर पं. राम प्रसाद बिस्मिल को बुलाया गया। दरअसल अशफाक उन्हें ‘राम’ कहकर ही पुकारते थे।
 भी एक सच्चे देशभक्त हैं। बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है-‘तुम अपने इष्टमित्रों द्वारा इस बात का विश्वास दिलाने की कोशिश की कि तुम बनावटी आदमी नहीं हो, तुम्हारे दिल में मुल्क की खिदमत करने की ख्वाहिश थी। अंत में तुम्हारी विजय हुई।...तुम सच्चे मित्र बन गये।...सबको आश्चर्य था कि एक कट्टर आर्य समाजी और एक मुसलमान का कैसा मेल?’ इन दोनों में अगाध प्रेम था। अधिकतर वे एक थाली में खाना खाया करते थे। अशफाक से बिस्मिल इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने लिखा है-‘मेरे हृदय से यह विचार जाता रहा कि हिन्दू-मुसलमान में कोई भेद है।’ वे बिस्मिल को हमेशा इस बात के लिए अनुरोध करते थे कि वे उर्दू में भी लेख व पुस्तक लिखें, ताकि मुसलमानों तक भी उनके विचार पहुंचे। एक बार अशफाक बीमार हुए और बेहोशी की हालत में वह ‘राम’ कह रहते थे। वहां मौजूद सभी को अचरज हुआ कि वह ‘राम...राम’ क्यों कह रहा है, उन्हें तो ‘अल्लाह-अल्लाह’ कहना चाहिए। पास मौजूद एक मित्र ‘राम’ के भेद को जान गये और फिर पं. राम प्रसाद बिस्मिल को बुलाया गया। दरअसल अशफाक उन्हें ‘राम’ कहकर ही पुकारते थे। 
 
 
 
 


