को ख़त्म करने का है
प्रोफेसर राम पुनियानी पेशे से डॉक्टर हैं। फिर आईआईटी मुंबई में पढ़ाते रहे और एक दिन स्वैच्छिक रिटायरमेंट लेकर सांप्रदायिकता की खाई को पाटने में जुट गये। 1992-93 के दंगों ने उन पर गहरा असर डाला। वे कहते हैं कि इन दंगों ने उन्हें समझा दिया था कि सारा झगड़ा लोकतंत्र को ख़त्म करने का है और हिंदु-मुसलमानों के बीच की नफ़रत को ख़त्म करने के मक़सद से
सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसाइटी एंड सेक्यलुरिज़्म के साथ जुड़ गये। इन दिनों देश भर में घूम-घूमकर वर्कशॉप आदि के जरिये सांप्रदायिकता को ख़त्म करने का संदेश फैलाने में लगे हैं। हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा संस्कृति साझी विरासत विषय पर आयोजित दो दिवसीय वर्कशॉप में उन्होंने खुल कर अपने विचार रखे। इसी मौके पर उनसे बात की पत्रकार और ब्लॉगर शायदा ने।
राजनेताओं की सबसे बड़ी सफलता है और यह सफलता असुरक्षा फैला कर ही मिली है। सही है कि हिंदू भी असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। लेकिन यह असुरक्षा उससे बिल्कुल भिन्न है, जो अल्पसंख्यक होने की है। हिंदुओं की असुरक्षा डिफेंसिव है और मुसलमानों की शारीरिक और मानसिक यातना को भोग लेने के बाद की है। आज राजनीति इस तरह की जाती है, जिससे कि हिंदुओं में यह भावना फैले कि अगर तुमने लामबंदी नहीं की तो मार दिये जाओगे। मैंने 1992-93 के दंगों में खुद देखा है कि मुंबई में किस तरह अल्पसंख्यकों को टारगेट करने से पहले बहुसंयकों में यह फैलाया जाता था कि अगर ऐसा न किया तो हम पर ख़तरा है। यह भावना अब ज़ोर पकड़ चुकी है।
सोच-समझ कर अपनी जनसंख्या बढ़ा रहे हैं? परिवार नियोजन जैसे कार्यक्रम पर उनका रवैया नकारात्मक रहता है?
यह मुद्दा कई बार उठ चुका है और हर बार जब आंकड़े सामने आते हैं तो इसे उठाने वाले चुप बैठ जाते हैं। इसमें सच सिर्फ इतना है कि जहां अशिक्षा और ग़रीबी है, वहां परिवारों में ज़्यादा बच्चे नज़र आते हैं। वे हिंदू भी हो सकते हैं और मुसलमान भी। उनके सामने मामला धर्म से ज़्यादा कमाने के लिए पैदा किये जाने वाले हाथों का होता है। उनके सामने परिवार नियोजन से ज़्यादा रोटी की फिक्र होती है। लेकिन इस दिशा में अब बदलाव दिख रहे हैं।
मुसलमान इस देश में रह कर भी पाकिस्तान के हामी हैं, यहां तक कि क्रिकेट में पाकिस्तान के जीत जाने पर उनके जश्न मनाये की ख़बरें सुनाई देती हैं। यह बात भी हिंदुओं में नफ़रत फैलाने का काम तो करती ही है?
ऐसा नहीं है कि मुसलमान पाकिस्तान के हामी हैं। अगर ऐसा होता तो जिस वक्त पाकिस्तान बना, सारे मुसलमान पाकिस्तान चले गये होते। जो लोग नहीं गये, वे इसी देश को अपना मानते रहे और यहीं रह गये। कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं जो पाकिस्तान के जीतने पर खुश होते हों, लेकिन इसे किसी संकट की तरह नहीं लेना चाहिए। ये वो लोग हैं, जो कहीं न कहीं अपने उन बुज़ुर्गों से जुड़ाव महसूस करते हैं जो देश छोड़ कर चले गये थे। अगर सारे मुसलमान पाकिस्तान के हक में होते तो हमारे पास कभी इस कम्युनिटी से बढिया प्लेयर्स निकल कर आते ही नहीं। वे तो पाकिस्तान के खिलाफ टीम को जिताते हैं न।
पचास हिंदू परिवारों के बीच एक मुसलमान रह सकता है, लेकिन पचास मुसलमानों के बीच एक हिंदू को नहीं देखा जाता, क्यों?
देखिए इस बात की तह में जाने के लिए समझना होगा उन मिथकों को, जो मुसलमानों के ख़िलाफ इस्तेमाल किये जाते हैं। पुराने समय से कहा जाता है - मुसलमानों ने हिंदुओं के मंदिर तोड़े, बलपूर्वक इस्लाम फैलाया, जजिया कर लगाया, हिंदू महिलाओं के साथ जुल्म किया आदि आदि। इसमें जो भी तथ्य हैं, वे इतिहास में दर्ज हो सकते हैं, लेकिन इससे भी यह साबित नहीं हो जाता कि आम मुसलमान इसके आज ज़िम्मेदार है। विभाजन के इन मिथकों में यह भी जुड़ गया कि वे हिंसक, गंदे और अशिक्षित होते हैं। इस सारे प्रचार के कारण आम हिंदू दूरी बरतता है, और मुसलमान तो असुरक्षित है ही। इसके नतीजे में हम देखते हैं कि अब ये लोग अपने-अपने इलाके विकसित करते हैं। हमारे यहां मुंबई में तो मुसलमानों को किराये पर घर लेने तक में दिक्कत आती है। इमरान हाशमी जैसे स्टार तक को यह समस्या झेलनी पड़ी थी। बहुत गंभीर है यह समस्या।
ऐसे में या उम्मीद बचती है?
उम्मीद तो है ही, तभी तो हम यहां यह बात कह पा रहे हैं। हम आम आदमी तक यह संदेश पहुंचाना चाहते हैं कि दोनों धर्मों के लोग अपनी-अपनी आस्था के साथ शांति से रह सकते हैं, अगर वे राजनीति को समझ लें तो। कोई भी धर्म एक दूसरे को नुक़सान पहुंचाने की बात तो कहता ही नहीं। इसमें हमारा फोकस मीडिया और युवाओं पर है। वे अगर सही बात प्रचारित करें, तो यह खाई पाटने में कम समय लगेगा।
ये इंटरव्यू दैनिक भास्कर के चंडीगढ़ एडिशन 16 जुलाई को पब्लिश हुआ था।
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